Wednesday, May 21, 2008

कानपुर वाया साइबर बाईपास

एल्लो! कनपुरिए जहाँ भी जाते है धमाल मचा ही देते है। यही तो इस शहर की मिट्टी का कमाल है। कानपुर के इस ब्लॉग कानपुरनामा की चर्चा लोकप्रिय हिन्दी दैनिक अखबार हिन्दुस्तान दैनिक मे कवर की गयी है। चर्चाकार हैं हमारे लोकप्रिय,चर्चित ब्लागर साथी रवीशकुमार।

रवीशजी ने शायद दैनिक हिन्दुस्तान में ब्लागचर्चा की पारी की शुरुआत की है। और शानदार शुरुआत की है।बड़े मन से लिखे इस लेख में रवीश ने कानपुरनामा के बारे में रोचक अंदाज में लिखा है। कानपुर के बारे में लिखते हुये रवीश कहते हैं-
पूरब का मैनचेस्टर और लखनऊ के पहले का महानगर कानपुर खंडहर में बदलने से पहले की स्थिति में एक बचा-खुचा शहर है। कनपुरिया भले मस्त हो लेकिन वो जानता है कि कानपुर पस्त हो गया है। वो उभरता हुआ नहीं बल्कि कराहता हुआ शहर है। जहां बिजली कम आती है और जनरेटर का धुंआ दिन में ही काले बादलों की छटा बांध देता है।

आगे कानपुरकथा बांचते हुये रवीश कहते हैं-
ऐसे उदास शहर में लेखक जिंदादिली के सुराग ढूंढ रहे हैं। वो मोहल्लों और नुक्कडो़ की मस्ती उठाकर शहर को नये रंग में पेंट कर रहे हैं। पता चलता है कानपुर में गुरू शब्द का इस्तेमाल कितने रूपों में होता है। सम्मान और हिकारत दोनों के लिये। जुमलों का शहर है कानपुर।

कनपुरिया-किस्से बताते-बताते ब्लागर रवीशकुमार कनपुरियों को छुआते भी चलते भी चलते हैं। ऐसी महीन छुअन की सहा भी न जाये और कहा भी न जाये-
कनपुरिया लिखने में भी लाठी उठा लेते हैं।
फ़ायनल-फ़िनिसिंग मौज लेते हुये रवीश लिखते हैं-
कनपुरिया जीतू भाई को कानपुर पर गर्व तो है लेकिन वो कानपुर में नहीं रहना चाहते। बकौल जीतू भाई यहां धूल बहुत है। यही कानपुर की त्रासदी है। बिल्कुल ठग्गू के लड्डू की तरह। होता सच्चा है मगर बेचा जाता है धोखे से लगने वाले नारों से। बंटी बबली के शहर कानपुर में अब ब्लागरों का कब्जा हो रहा है।


इस लेख स्वत:स्फ़ूर्त प्रतिक्रिया में कनपुरिया ब्लागर रितू ने जो प्रतिक्रिया दी वह एक कनपुरिया की सहजबयानी है। पढ़कर बेसाख्ता मुंह से निकला -अरे वाह, झाड़े रहो कलट्टरगंज! रितु कहती हैं-

सुबह-सुबह हिन्दुस्तान देखा तो संपादकीय पेज पर कानपुर का नाम दिखाई दिया। आंखे खुल गयीं, नींद दूर भाग गयी। कानपुर का जिक्र कहीं भी आये.... पाजिटिव या नि्गेटिव हम कनपुरियों को हमेशा अच्छा लगता है। कानपुरी ....बगल में छूरी किसी से सुना था ये। और यकीन मानिये बुरा लगने की जगह अच्छा ही लगा। हम तो बेलौस कहते हैं कि हां हम कनपुरिये बड़े खुराफ़ाती होते हैं। सच पूछिये तो कानपुर में ऐसा कुछ फ़क्र करने जैसा है नहीं। और इन्फ़्रास्ट्रक्चर को देखते हुये कानपुर रहने लायक भी नहीं है। और आज से एक साल पहले तक मैं भी उसी भीड़ का हिस्सा थी जो कानपुर में रहकर भी शहर को दबाकर गालियां देते हैं। लेकिन अचानक रेडियो मिर्ची में कापी राइटर बनने के बाद , और खांटी कन्पुरिया शब्दों को ढूंढते कब अपने शहर पर प्यार उमड़ पता ही ब चला। बंटी बबली की खुराफ़ात हो या टशन की हरामीपन्थी , कानपुर तो कान्हैपुर है। फिर कोई कुछो कहत रहे हमका कौनौ फरक नहीं पड़ता। क्यों भइया हम तो पूरे कनपुरिया हैं। और जब आप जैसे बड़े-बड़े लोग कानपुर के बारे में कुछ लिखते हैं तो मौज आ जाती है। दुनिया जहान
घूम कर भी अपने शहर का जो आलम है... गजब है। इसीलिये तो कहते हैं हम कि चाहे कल्लो दुनिया टूर, अई गजब है कानपुर।
आगे अब आप खुद ही पढ लीजिए ये रहा लिंक (इस लिंक को इन्टरनैट एक्प्लोरर मे खोलने से हिन्दी फोन्ट अपने आप दिख जाएगा, किसी और ब्राउजर से खोलने पर आपको हिन्दी फ़ोन्ट डाउनलोड करना पड़ सकता है।



कानपुर वाया साइबर बाईपास

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हम रवीश कुमार का आभार व्यक्त करते हैं कि उनके इस लेख से अपने शहर के बारे में लिखने का हमारा मन और पक्का हुआ। कानपुर के बारे में अपने उद्गार व्यक्त करते हुये कन्हैयालालनंदन जी ने एक बार कानपुर की ही एक सभा में कहा था
भई ,देखो अपने शहर की तारीफ करना अच्छी बात नहीं होती लेकिन यार, मैं क्या करूं मेरे अन्दर यह टहलता है.मैंने बहुत पहले ये कहीं लिखा है कि यह शहर बिफरता है तो चटकते सूरज की तरह बिफरता है और बिछता है तो गन्धफूल की तरह बिछता है.
हमें पूरा विश्वास है कि रवीश कुमार की नियमित ब्लागवार्ता लोगों हिंदी ब्लागिंग के प्रति रुझान पैदा करने में महत्वपूर्ण साबित होगी। रितु की कनपुरिया प्रतिक्रिया से मन खुश हो गया।

मेरी पसन्द



हम न हिमालय की ऊंचाई,
नहीं मील के हम पत्थर हैं
अपनी छाया के बाढे. हम,
जैसे भी हैं हम सुंदर हैं

हम तो एक किनारे भर हैं
सागर पास चला आता है.

हम जमीन पर ही रहते हैं
अंबर पास चला आता है.
--वीरेन्द्र आस्तिक

Tuesday, May 20, 2008

कानपुर कनकैया जंह पर बहती गंगा मइया

ज्यादा दिन नही हुये जब कानपुर "मैनचेस्टर आफ इंडिया" कहलाता था.यहां दिनरात चलती कपङे की मिलों के कारण.आज मिलें बंद है और कानपुर फिलहाल कुली कबाङियों का शहर बना अपने उद्धारक की बाट जोह रहा है.कानपुर को धूल,धुआं और धूर्तों का शहर बताने वाले यह बताना नहीं भूलते कि प्रसिद्ध ठग नटवरलाल ने अपनी ठगी का बिसमिल्ला (शुरुआत)कानपुर से ही किया था.

फिलहाल शहर के लिये दो झुनझुने बहुत दिनों से बज रहे हैं .गंगा बैराज और हवाई अड्डा.देखना है कि कब यह बनेगे.कानपुर अपने आसपास के लिये कलकत्ता की तरह है. जैसे कलकत्ते के लिये भोजपुरी में कहते हैं-लागा झुलनिया(ट्रेन)का धक्का ,बलम कलकत्ता गये.इसी तरह आसपास के गांव से लेकर पूर्वी उत्तरप्रदेश तक जिसका मूड उखङा वो सत्तू बांध के कानपुर भाग आता है और यह शहर भी बावजूद तमाम जर्जरता के किसी को निराश करना अभी तक सीख नहीं पाया.

टेनरियों और अन्य प्रदूषण के कारण कानपुर में गंगा भले ही मैली हो गयी हो,कभी बचपन में सुनी यह पंक्तियां आज भी साफ सुनाई देती हैं:-

कानपुर कनकैया

जंह पर बहती गंगा मइया
ऊपर चलै रेल का पहिया
नीचे बहती गंगा मइया
चना जोर गरम......

चने को खाते लछमण वीर
चलाते गढ लंका में तीर
फूट गयी रावण की तकदीर
चना जोर गरम......

कितना ही चरमरा गया हो ढांचा कानपुर की औद्धोगिक स्थिति का पर कनपुरिया ठसक के दर्शन अक्सर हो ही जाते हैं, गाहे-बगाहे.एक जो नारा कनपुरियों को बांधता है,हिसाबियों को भी शहंशाही-फकीरी ठसक का अहसास देता है ,वह है:-

झाङे रहो कलट्टरगंज,
मंडी खुली बजाजा बंद.


कनपरिया टकसाल में हर साल ऐसे शब्द गढे जाते हैं जो कुछ दिन छाये रहते हैं और फिर लुप्त हो जाते हैं.कुछ स्थायी नागरिकता हासिल कर लेते है.चिकाई /चिकाही, गुरु ,लौझड़ जैसे अनगिनत शब्द स्थायी नागरिक हैं यहां की बोली बानी के.गुरु के इतने मतलब हैं कि सिर्फ कहने और सुनने वाले का संबंध ही इसके मायने तय कर सकता है ."नवा(नया) है का बे?" का प्रयोग कुछ दिन शहर पर इतना हावी रहा कि एक बार कर्फ्यू लगने की नौबत आ गयी थी. चवन्नी कम पौने आठ उन लोगों के परिचय के लिये मशहूर रहा जो ओवर टाइम के चक्कर में देर तक (पौने आठ बजे)घर वापस आ पाते थे.आलसियों ने मेहनत बचाने के लिये इसके लघु रूप पौने आठ से काम निकालना शुरू किया तो चवन्नी पता ही नही चला कब गायब हो गयी

कनपुरिया मुहल्लों के नामों का भी रोचक इतिहास है.

तमाम चीजें कानपुर की प्रसिद्ध हैं. ठग्गू के लड्डू (बदनाम कुल्फी भी)का कहना है:-

1.ऐसा कोई सगा नहीं
जिसको हमने ठगा नहीं

2.दुकान बेटे की गारंटी बाप की

3.मेहमान को मत खिलाना
वर्ना टिक जायेगा.

4.बदनाम कुल्फी --
जिसे खाते ही
जुबां और जेब की गर्मी गायब

5.विदेसी पीते बरसों बीते
आज देसी पी लो--
शराब नहीं ,जलजीरा.


मोतीझील ( हंस नहीं मोती नहीं कहते मोतीझील ),बृजेन्द्र स्वरूप पार्क,कमला क्लब,कभी सर्व सुलभ खेल के मैदान होते थे.आज वहां जाना दुर्लभ है. कमला टावर की ऊंचाई पर कनपुरिया कथाकार प्रियंवदजी इतना रीझ गये कि अपनी एक कहानी में नायिका के स्तनों का आकार कमला टावर जैसा बताया.

नाना साहब ,गणेश शंकर विद्धार्थी,नवीन,सनेही जी ,नीरज आदि से लेकर आज तक सैकङों ख्यातनाम कानपुर से जुङे हैं.

एक नाम मेरे मन में और उभरता है.भगवती प्रसाद दीक्षत "घोड़ेवाला" का.घोङेवाले एकदम राबिनहुड वाले अंदाज में चुनाव लङते थे.उनके समर्थक ज्यादातर युवा रहते थे.हर बार वो हारते थे.पर हर चुनाव में खङे होते रहे.एक बार लगा जीत जायेंगे.पर तीसरे नंबर पर रहे.उनके चुनावी भाषण हमारे रोजमर्रा के दोमुहेपन पर होते थे.एक भाषण की मुझे याद है:-

जब लड़का सरकारी नौकरी करता है तो घरवाले कहते हैं खाली तन्ख्वाह से गुजारा कैसे होगा?ऐसी नौकरी से क्या फायदा जहां ऊपर की कमाई न हो.वही लङका जब घूस लेते पकङा जाता है तो घर वाले कहते है-हाथ बचा के काम करना चाहिये था.सब चाहते हैं-लड्डू फूटे चूरा होय, हम भी खायें तुम भी खाओ.

"डान क्विकजोट" के अंदाज में अकेले चलते घोङेवाले चलते समय कहते-- आगे के मोर्चे हमें आवाज दे रहे है.

सन् 57 की क्रान्ति से लेकर आजादी की लङाई,क्रान्तिकारी,मजदूर आन्दोलन में कानपुर का सक्रिय योगदान रहा है.शहर की बंद पङी मिलों की शान्त चिमनियां गवाह हैं ईंट से ईंट बजा देने के जज्बे को लेकर हुये श्रमिक आन्दोलनों की.ईंटे बजने के बाद अब बिकने की नियति का निरुपाय इन्तजार कर रही हैं.


आई आई टी कानपुर,एच बी टी आई ,मेडिकल कालेज से लैस यह शहर आज कोचिंग की मंडी है.आज अखबार कह रहा था कि अवैध हथियारों की भी मंडी है कानपुर.

कानपुर के नये आकर्षणों में एक है -रेव-3.तीन सिनेमा घरों वाला शापिंग काम्प्लेक्स. मध्यवर्गीय लोग अब अपने मेहमानों को जे के मंदिर न ले जाकर रेव-३ ले जाते हैं.पर मुझसे कोई रेव-3 की खाशियत पूंछता है तो मैं यही कहता हूं कि यह भैरो घाट(श्मशान घाट) के पीछे बना है यही इसकी खाशियत है.बमार्फत गोविन्द उपाध्याय(कथाकार)यह पता चला है कि रेव-3 की तर्ज पर भैरोघाट का नया नामकरण रेव-4 हो गया है और चल निकला है.


कानपुर में बहुत कुछ रोने को है.बिजली,पानी,सीवर,सुअर,जाम,कीचङ की समस्या.बहुत कुछ है यहां जो यह शहर छोङकर जाने वाले को बहाने देता है.यह शहर तमाम सुविधाओं में उन शहरों से पीछे है जिनका विकास अमरबेल की तरह शासन के सहारे हुआ है.पर इस शहर की सबसे बङी ताकत यही है कि जिसको कहीं सहारा नहीं मिलता उनको यह शहर अपना लेता है.

जब तक यह ताकत इस शहर में बनी रहेगी तब तक कनपुरिया(झाङे रहो कलट्टरगंज) ठसक भी बनी रहेगी.

यह लेख साढ़े तीन साल पहले जब लिखा गया था तब शहर में हवाई अड्डा और गंगा बैराज बनने की बात थी। आज दोनों बन गये हैं।

Sunday, May 18, 2008

विजयी विश्व तिरंगा प्यारा

[अभिव्यक्ति के सातवें वर्ष में प्रवेश के मौके पर पूर्णिमाजी ने मुझे झंडा गीत के अमर गीतकार श्यामलाल गुप्त 'पार्षद' का परिचय लिखने का काम दिया था। मेरा तथा शोभा स्वप्निलजी का संशोधित लेख अभिव्यक्ति में पढ़ सकते हैं। श्यामलाल गुप्त'पार्षद'जी के बारे में जानकारी एकत्र करते समय मुझे कानपुर के सारे साहित्यकारों तथा अन्य महापुरुषों के बारे में लिखने का विचार था। कानपुरनामा शुरू करने के पीछे यही विचार रहा। आगे अन्य व्यक्तित्वों के बारे में भी जानकारी देने का प्रयास रहेगा। ]

श्यामलाल गुप्त 'पार्षद'



श्री श्यामलाल गुप्त 'पार्षद' का जन्म कानपुर जिले के नरवल ग्राम में ९ सितम्बर १८९६ को मध्यवर्गीय वैश्य परिवार में हुआ। आपके पिता का नाम विश्वेश्वर प्रसाद और माता का नाम कौशल्या देवी था। प्रकृति ने उन्हें कविता करने की क्षमता सहज रूप में प्रदान की थी। जब श्यामलालजी पाँचवी कक्षा में थे तो यह कविता लिखी:-

परोपकारी पुरुष मुहिम में,पावन पद पाते देखे,
उनके सुन्दर नाम स्वर्ण से सदा लिखे जाते देखे।


श्यामलालजी ने मिडिल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसके बाद हिन्दी साहित्य सम्मेलन से 'विशारद' हो गये। आपकी रामायण पर अटूट श्रद्धा थी। १५ वर्ष की अवस्था में हरिगीतिका,सवैया,घनाक्षरी आदि छन्दों में आपने रामकथा के बालकण्ड की रचना की। परन्तु पूरी पाण्डुलिपि पिताजी ने कुएं में फिकवा दी क्योंकि किसी ने उन्हें समझा दिया था कि कविता लिखने वाला दरिद्र होता है और अंग-भंग हो जाता है। इस घटना से बालक श्यामलाल के दिल को बडा़ आघात लगा और वे घर छोड़कर अयोध्या चले गये। वहाँ मौनी बाबा से दीक्षा लेकर राम भजन में तल्लीन हो गये। कुछ दिनों बाद जब पता चला तो कुछ लोग अयोध्या जाकर उन्हें वापस ले आये।श्यामलाल जी के दो विवाह हुए। दूसरी पत्नी से एकमात्र पुत्री की प्राप्ति हुई बाद में जिनका विवाह कानपुर के प्रसिद्ध समाजसेवी एडवोकेट श्री लक्ष्मीनारायण गुप्त से हुआ।

श्यामलाल जी ने पहली नौकरी जिला परिषद के अध्यापक के रूप में की। परन्तु जब वहाँ तीन साल का बाण्ड भरने का सवाल आया तो आपने त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद म्यूनिसपेलिटी के स्कूल में अध्यापक की नौकरी की। परन्तु वहाँ भी बाण्ड के सवाल पर आपने त्यागपत्र दे दिया।

अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी और साहित्यकार श्री प्रताप नारायण मिश्र के सानिध्य में आने पर श्यामलाल जी ने अध्यापन, पुस्तकालयाध्यक्ष और पत्रकारिता के विविध जनसेवा कार्य भी किये। पार्षद जी १९१६ से १९४७ तक पूर्णत: समर्पित कर्मठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे। गणेशजी की प्रेरणा से आपने फतेहपुर को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। इस दौरान 'नमक आन्दोलन' तथा 'भारत छोड़ो आन्दोलन' का प्रमुख संचालन तथा लगभग १९ वर्षों तक फतेहपुर कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद के दायित्व का निर्वाह भी पार्षद जी ने किया। जिला परिषद कानपुर में भी वे १३ वर्षों तक रहे।


असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के कारण पार्षदजी को रानी अशोधर के महल से २१ अगस्त,१९२१ को गिरफ्तार किया गया। जिला कलेक्टर द्वारा उन्हें दुर्दान्त क्रान्तिकारी घोषित करके केन्द्रीय कारागार आगरा भेज दिया गया। इसके बाद १९२४ में एक असामाजिक व्यक्ति पर व्यंग्य रचना के लिये आपके ऊपर ५०० रुपये का जुर्माना हुआ। १९३० में नमक आन्दोलन के सिलसिले में पुन: गिरफ्तार हुये और कानपुर जेल में रखे गये। पार्षदजी सतत्‌ स्वतंत्रता सेनानी रहे और १९३२ में तथा १९४२ में फरार रहे। १९४४ में आप पुन: गिरफ्तार हुये और जेल भेज दिये गये। इस तरह आठ बार में कुल छ: वर्षों तक राजनैतिक बंदी रहे।

स्वाधीनता आन्दोलन में भाग लेने के दौरान वे चोटी के राष्ट्रीय नेताओं- मोतीलाल नेहरू,महादेव देसाई,रामनरेश त्रिपाठी और अन्य नेताओं के संपर्क में आये।

स्वतंत्रता संघर्ष के साथ ही आपका कविता रचना का कार्य भी चलता रहा। वे इक दृढ़ संकल्प वाले व्यक्ति थे। १९२१ में आपने स्वराज्य प्राप्ति तक नंगे पांव रहने का व्रत लिया और उसे निभाया। गणेश शंकर विद्यार्थी की प्रेरणा से पार्षदजी ने ३-४ मार्च ,१९२४ को ,एक रात्रि में, भारत प्रसिद्ध 'झण्डा गीत' की रचना की। पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में १३ अप्रैल,१९२४ को,'जालियाँवाला बाग दिवस' पर, फूलबाग ,कानपुर में सार्वजनिक रूप से झण्डागीत का सर्वप्रथम सामूहिक गान हुआ। मूल रूप में लिखा झण्डागीत इस प्रकार है:-



विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,झण्डा ऊँचा रहे हमारा।
सदा शक्ति बरसाने वाला
वीरों को हरसाने वाला
प्रेम सुधा सरसाने वाला
मातृभूमि का तन मन सारा,झण्डा ऊँचा रहे हमारा।१।

लाल रंग बजरंगबली का
हरा अहल इस्लाम अली का
श्वेत सभी धर्मों का टीका
एक हुआ रंग न्यारा-न्यारा,झण्डा उँचा रहे हमारा ।२।

है चरखे का चित्र संवारा
मानो चक्र सुदर्शन प्यारा
हरे रंग का संकट सारा
है यह सच्चा भाव हमारा,झण्डा उँचा रहे हमारा ।३।

स्वतंत्रता के भीषण रण में
लखकर जोश बढ़े क्षण-क्षण में
कांपे शत्रु देखकर मन में
मिट जायें भय संकट सारा,झण्डा ऊँचा रहे हमारा।४।

इस झण्डे के नीचे निर्भय
ले स्वराज्य का अविचल निश्चय
बोलो भारत माता की जय
स्वतंत्रता है ध्येय हमारा,झण्डा उँचा रहे हमारा ।५।
आओ प्यारे वीरों आओ
देश धर्म पर बलि-बलि जाओ
एक साथ सब मिलकर गाओ

प्रयारा भारत देश हमारा,झण्डा उँचा रहे हमारा।६।
शान न इसकी जाने पाये
चाहे जान भले ही जाये
विश्व विजय करके दिखलायें
तब होवे प्रण पूर्ण हमारा,झण्डा उँचा रहे हमारा ।७।


७ पद वाले इस मूल गीत से बाद में कांग्रेस नें तीन पद(पद संख्या १,६ व ७) को संसोधित करके 'झण्डागीत' के रूप में मान्यता दी। यह गीत न केवल राष्ट्रीय गीत घोषित हुआ बल्कि अनेकों नौजवानों और नवयुवतियों के लिये देश पर मर मिटने हेतु प्रेरणा का श्रोत भी बना।

पार्षद जी के बारे में अपने उद्‌गार व्यक्त करते हुये नेहरू जी ने कहा था-'भले ही लोग पार्षद जी को नहीं जानते होंगे परन्तु समूचा देश राष्ट्रीय ध्वज पर लिखे उनके गीत से परिचित है।'

राजनीतिक कार्यों के अलावा पार्षदजी सामाजिक कार्यों में भी अग्रणी रहे। उन्होंने दोसर वैश्य दोसर वैश्य इंटर कालेज( जो कि आज बिरहाना रोड पर गौरीदीन गंगाशंकर विद्यालय के नाम से जाना जाता है) एवं अनाथालय,बालिका विद्यालय,गणेश सेवाश्रम,गणेश विद्यापीठ,दोसर वैश्य महासभा ,वैश्य पत्र समिति आदि की स्थापना एवं संचालन किया। इसके अलावा स्त्री शिक्षा व दहेज विरोध में आपने सक्रिय योगदान किया। आपने विधवा विवाह को सामाजिक मान्यता दिलाने में सक्रिय योगदान किया।पार्षदजी ने वैश्य पत्रिका का जीवन भर संपादन किया।

रामचरित मानस उनका प्रिय ग्रन्थ था।वे श्रेष्ठ 'मानस मर्मज्ञ' तथा प्रख्यात रामायणी भी थे । रामायण पर उनके प्रवचन की प्रसिद्ध दूर-दूर तक थी। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद जी को उन्होंने सम्पूर्ण रामकथा राष्ट्रपति भवन में सुनाई थी। नरवल,कानपुर और फतेहपुर में उन्होंने रामलीला आयोजित की।

'झण्डा गीत' के अलावा एक और ध्वज गीत श्यामलाल गुप्त'पार्षद'जी ने लिखा था। लेकिन इसकी विशेष चर्चा नहीं हो सकी। उस गीत की पहली पंक्ति है:-

राष्ट्र गगन की दिव्य ज्योति,
राष्ट्रीय पताका नमो-नमो।
भारत जननी के गौरव की,
अविचल शाखा नमो-नमो।



पार्षदजी को एक बार आकाशवाणी कविता पाठ का न्योता मिला। उनके द्वारा पढ़ी जाने वाली कविता का एक स्थानीय अधिकारी द्वारा निरीक्षण किया गया जो इस प्रकार थी:-

बंधे पंचानन मरते हैं,स्यार स्वछंद बिचरते हैं,
गधे छक-छक कर खाते हैं,खड़े खुजलाये जाते हैं।


इन पंक्तियों के कारण उनका कविता पाठ रोक दिया गया। इससे नाराज पार्षदजी कभी दुबारा आकाशवाणी केन्द्र नहीं गये। १२ मार्च,१९७२ को 'कात्यायनी कार्यालय' लखनऊ में एक भेंटवार्ता में उन्होंने कहा:-

देख गतिविधि देश की मैं मौन मन रो रहा हूँ,
आज चिन्तित हो रहा हूँ।
बोलना जिनको न आता था,वही अब बोलने हैं।
रस नहीं बस देश के उत्थान में विष घोलते हैं।
सर्वदा गीदड़ रहे,अब सिंह बन कर डोलते हैं।
कालिमा अपनी छिपाये,दूसरों को खोलते हैं।
देख उनका व्यक्तिक्रम,आज साहस खो रहा हूँ।
आज चिन्तित हो रहा हूँ।


स्वतंत्र भारत ने उन्हें सम्मान दिया और १९५२ में लालकिले से उन्होंने अपना प्रसिद्ध 'झण्डा गीत' गाया। १९७२ में लालकिले में उनका अभिनन्दन किया गया। १९७३ में उन्हें 'पद्‌मश्री' से अलंकृत किया गया।

१० अगस्त १९७७ की रात को इस समाजसेवी,राष्ट्रकवि का महाप्रयाण नंगे पैर में कांच लगने के कारण हो गया। वे ८१ वर्ष के थे। उनकी मृत्यु के बाद कानपुर और नरवल में उनके अनेकों स्मारक बने। नरवल में उनके द्वारा स्थापित बालिका विद्यालय का नाम 'पद्‌मश्री श्यामलाल गुप्त 'पार्षद' राजकीय बालिका इंटर कालेज किया गया। फूलबाग ,कानपुर में 'पद्‌मश्री'श्यामलाल गुप्त 'पार्षद' पुस्तकालय की स्थापना हुई। १० अगस्त,१९९४ को फूलबाग में उनकी आदमकद प्रतिमा स्थापित की गई।इसका अनावरण उनके ९९ वें जन्मदिवस (९ सितम्बर,९५ को)पर किया गया।

झण्डागीत के रचयिता, ऐसे राष्ट्रकवि को पाकर देश की जनता धन्य है।

Friday, May 9, 2008

'मुन्नू गुरु' अविस्मरणीय व्यक्तित्व

[अतुल की एक पोस्ट के जवाब में मैंने कानपुर के बारे में लेख लिखा था- झाड़े रहो कलट्टरगंज। उसे बाद में विस्तार देना हो नहीं पाया। इधर काफी दिन से हमें लग रहा था कि अपने शहर में बहुत कुछ है जो नेट पर आना चाहिये।मेरा विचार है कि कानपुर के व्यक्तित्वों का परिचय दिया जाये।कानपुर के तमाम लोग दुनिया में प्रसिद्ध हैं उनके बारे में परिचय देने के साथ-साथ मैं ऐसे लोगों के बारे में भी बताने का प्रयास करूंगा जिनको लोग कम जानते हैं मगर उनकी स्मृति लोगों के दिलों में बसी है। शुरुआत करता हूं 'मुन्नू गुरू 'से ।]

'मुन्नू गुरु'
'मुन्नू गुरु'

कानपुर शहर की हर अदा को अगर कोई एक शब्द ध्वनित करता है तो वह है -'गुरु'। यह शब्द यहां के जीवन की अमिधा भी है,लक्षणा भी और व्यंजना भी। 'गुरु' शब्द के मायने अनगिनत हैं।यह मायने शब्दकोश में नहीं मिलते बल्कि बोलने वाले की अदा ,आवाज,भंगिमा तथा सुनने वाले से उसके संबंध के अनुसार अर्थ ग्रहण करता है।

कानपुर का यह अनेकार्थी शब्द जो आदर से लेकर हिकारत तक हर भाव व्यक्त करने के काम आता है और इस्तेमाल करने वाले के मनोभाव व्यक्त करता है। चिकहाई करने वालों से लेकर श्रद्धाविनत होने वालों तक हर किसी का काम निकाल देने वाला यह कनपुरिया शब्द काल की सीमायें लांघ कर अभी तक यथावत प्रचलित है।

'गुरु' शब्द की इस यात्रा में जिन कुछ व्यक्तित्वों ने इसे अपने जीवन की कुछ सिद्धियों का प्रसाद सौंपा है उनमें हमारे 'मुन्नू गुरु' अद्वितीय हैं। अद्वितीय इसलिये कि उन जैसा अभी तक कोई दूसरा नहीं हुआ कि जिसमें कानपुर का बांकपन अपनी बोली-बानी के साथ झलकारी मारता हो।

गुरु से पूछ भर लेव कि गुरु क्या रंग है? गुरु हरा ,केसरिया, सफेद की छटा तिरंगे से उतार कर कहेंगे-'ट्राई कलर है बाबू! हरी(भांग) छानते हैं,लाल(आंखें) दिखाते हैं, आत्मा स्वच्छ साफ,सफेद रखते हैं। धन्य है ये रंग! अरे अपने तो झोरी झंडे से हैं।

यह पंडित जितेंद्र नाथ मिश्र 'मुन्नू गुरू' का टकसाली रंग था-तिरंगा।

'ट्राई कलर है बाबू! हरी छानते हैं,लाल दिखाते हैं, आत्मा स्वच्छ साफ,सफेद रखते हैं।.


पंडित नरेशचन्द्र चतुर्वेदी (सांसद कानपुर लोकसभा)जिन्हें,वे 'नरेज्जी'कह कर ही संबोधित करते रहे थे, से उनकी खा़सी छनती थी। कहते थे-'नहीं ठीक है ,अरे वारे नरेज्जी! संग साथ की बात दूसरी है, नहीं तो जहां रख दिये जाव,वहां से अंधियारा डिरा के भाग जाय। पब्लिक पर भी यही कलर है।अपने राम तो फक्कड़ कमान के आदमी हैं।अपन तो नरेशों का साथ करते हैं।पैसों वालों का अपने ऊपर कोई कलर नहीं। अपना जायका दूसरा है।बाबू हम तो मीठे दो बोल के गुलाम हैं।बापू की लाइन पर चलते हैं। बापू का कहना था:-गोली खाओ ,बापू ने खाई,हम भी गोली खाते हैं। जो गोली नहीं खाता वह बापू की लाइन का नहीं है। लाल टोपी और लाल झंडे से क्या होयेगा,जब गोली खा के शहीद होने की विचारधारा पास नहीं। जनता तो भेड़ बकरी है ,जिधर चाहो हाँक देओ। भाई हम तो पब्लिक हैं,जनता पर तो रंग चढ़ता है मगर पब्लिक पर तो कलर होता है।'

लाल टोपी और लाल झंडे से क्या होयेगा,जब गोली खा के शहीद होने की विचारधारा पास नहीं।



अभिव्यक्ति की यह भाषा और शैली 'मुन्नू गुरू' के व्यक्तित्व को समझने की कुंजी है। शाम को भांग और ठंडाई का सेवन उनकी पहचान थी। जिसमें उनका आतिथ्य सत्कार अपनी बाँहें पसार कर आगन्तुक का स्वागत करता था। देखने सुनने में भद्दर किसान होने का भान हो। ठिगना कद,रंग गोरा और चेहरे पर काली घनी मूँछें, मुँह में दबे पान से रँगे लाल होंठ- आँखें जिस पर भंग की नशीली रंगत झांकती हुई,घुटनों तक ऊँची धोती जिसके फेंटे का छोर लटकता हुआ। मिर्जई के कुछ बन्द खुले,कुछ कसे। हाथ में एक खूबसूरत सी छड़ी। भाव प्रदर्शन में अंग-प्रत्यंग की फड़कन ,बातचीत का मौलिक मुहावरा। नरेश जी के शब्दों में -मस्ती और बांकपन की संस्कृति जैसे पुंजीभूत हो गयी हो।

बात करने और कहने की कला 'मुन्नू गुरु' की अपनी खुद की थी। तमाम शब्द मुहावरे उनकी टकसाल से निकलते और जनता में प्रचलित होते रहे।जब किसी को उनको बुद्धू कहना होता तो कहते- 'गौतम बुद्धि हैं भाई जान।' अपने निकटस्थ लोगों से मजाक करते हुये कहते- 'सेवा से इन्सान बड़ा है। कथा बैठाओ-पंजीरी बँटवाओ।'

लेखकों की खिंचाई करते हुये कहते-'सफेदी पर स्याही लग रही है,मनो रद्दी तैयार होके निकल रही है स्वामी।'

मुहावरे गढ़ने में भी वे कम नहीं थे- 'जकी आन फुट है','तलवार पुरानी मगर काट नई है','भक्ति भावना का प्रभाव है,नहीं तो जगन्नाथ जी की सवारी मंदिर में धरी रह जाती'।....इत्यादि फिकरे उनके पेटण्ट थे।

अपने शब्दों का प्रयोग वे जिस ध्वनि में करते थे उसको लिखकर बताना मुश्किल है। फिर भी,उनके साथ के लोग उनकी बातों का उन्हीं के शब्दों में दिये बिना नहीं रहते और कोई मित्र उनकी ठीक नकल कर देता तो वे पूरे शरीर को घुमा के कहते-आइ डटी रह,बड़े सच्चे प्रयोग हैं स्वामी।

उनके कुछ शब्दों के अर्थ इतने विचित्र और भीषण हैं कि यदि अपरिचित जान जाय तो झगड़ा अवश्य हो । परन्तु उनके प्रयोग का कौशल ऐसा था कि झगड़े की नौबत नहीं आती।यदि किसी अनाधिकारी व्यक्ति ने उनके शब्दों का प्रयोग किया तो वे डांटकर कहेंगे- हमारे शब्दों को तुम न उनारो,प्रयोग में तनिक चूक हुई गई तो बस,खोपड़ी पर कबूतर उड़ने लगेंगे और छत्रपती बनने में देर नहीं लगेगी।

उनकी गालियां भी अपनी मौलिकता लिये रहती थीं। रेजर हरामी,लटरपाल आदि का प्रयोग वे अक्सर करते। उनके मित्र कहते- गुरू अपने शब्दों का कोष छपवा दीजिये तो वे गम्भीरता पूर्वक उत्तर देते- 'सरकार ने कई बार बुलाकर कहा,मगर हमने मंजूर नहीं किया। बिना छपे प्रयोग बढ़ रहा है,छपने से बेपर्दगी का डर है।'

जब किसी को जाने को कहना होता तो कहते-
जाव,अब बिहारी हुइ जाव। जिससे मन न मिलता उसके लिये कहते- तुम्हें का बताई,ई कानपुर के 'खड़दूहड़'हैं,अब हमार मन तुमसे मिला है,ई मूसर चंद आइगे अब इनको हटाना ही ठीक था।

कविता सुनने के बहुत शौकीन थे। कवि सम्मेलनों में रात-रात भर जमे रहते। कवियों की हर पंक्ति पर वे अपनी मार्मिक टिप्पणी किये बिना नहीं रहते। कविता यदि जंच जाये तो जोर से 'वाह' कहने से उन्हें कोई नहींरोक सकता ।यदि नहीं जंची तो भी मनचाहा शब्द जरूर बाहर आता। कोई पंक्ति जमजाती तो कहते- 'बात तत्व की कह रहा है।'यदि कोई पंक्ति समझ न आयी तो बैठे ही बैठे कई आसन बदलते तथा कहते अपच्च हो रहा है।..घिना गया।.. नाजायज बात कह रहा है।...आदि। यदि कोई कवि राजनीतिक पार्टी का हुआ तो कहते- ये कमीनिस्ट है। ये खोखलिस्ट है।

हर पढे लिखे विद्वान का वे बेहद आदर करते थे।डा.कृपा शंकर तिवारी ने अपनी पहली मुलाकात का जिक्र करते हुये लिखा:-
मुन्नू गुरु ने पूछा- भाई साहब ,बुरा न मानियेगा आप चीर-फाड़ वाले डाक्टर हो या पढ़ाई -लिखाई वाले ?

रघुनाथ (मुन्नू गुरू के मित्र) ने बताया- अरे यार क्राइस्ट चर्च कालेज में हैं।

'अच्छा तो अपनी कम्पनी में भर्ती लायक हैं।'

डा.तिवारी को उन्होने नामलेकर कभी नहीं पुकारा।जब पुकारा आदर से डाक्टर कहकर पुकारा।जिसे प्यार करते थे अपार करते थे। डाक्टर को भी करने लगे। जिसे वे अपने स्नेह-मण्डल में शामिल कर लेते उसके लिये वे कहते थे कि यह उनकी मण्डली का आदमी है। उस मंडली में नये-नये विद्वान,कवि,कलाकार,संगीतकार भर्तीकिये जाते रहते थे।

वे प्राय: कहते थे कि 'भई देखो,अपने पास कोई डिग्री तो है नहीं मगर झार एम.ए. और पी.एच.डी. का क्लास लेते हैं। इससे कम की गुंजाइस अपने पास नहीं है।'


'भई देखो,अपने पास कोई डिग्री तो है नहीं मगर झार एम.ए. और पी.एच.डी. का क्लास लेते हैं।इससे कम की गुंजाइस अपने पास नहीं है।'


उनका उठना-बैठना पढ़े-लिखे लोगों के बीच ही अधिक था जिसे वे 'कम्पनी आफ किंग्स'कहते थे। एक बार मैं(डा.तिवारी) दुकान गया तो देखा गुरु नदारद हैं और दुकान पड़ोसी को तका गये हैं। लौट ही रहा था कि देखा गुरु रिक्शे से उतर रहे हैं। सर्राफे की दुकान को ऐसे लापरवाही से खुली छोड़कर जाने पर टोंका तो बोले-,"ऐ डाक्टर वो तो पत्थर (हीरे,पन्ने,मूंगे आदि) हैं,अपनी झोली में तो एक से एक रतन(पढ़े लिखे लोगों का साथ )है। "

रतन जतन के पारखी वे ऐसे लोगों से हमेशा दस हाथ का फासला रखते जिन्हें हमेशा गम्भीरता की मोटी चादर ओढ़े रहने का फोबिया हो चुकता था।

वे कहा करते थे-हमारा मजमा तो फुदकते कुरीजों का चहचहाता चमन है-एक उछाल इधर को आये,एक उछाल उधर को जाये।

यह तो ठीक है गुरु लेकिन उन दंगलबाजों की हरकतों का क्या इलाज होगा जो चारे की एक गोली फेंककर कभी-कभी बड़े-बड़े कुरीजों की पेटियां खुलवा लेते हैं?- सिद्धेगुरु ने पूछा।

"अरे नहीं-नहीं हमारे मजमें में ऐसे किसी कलर की कोई आमद नहीं है। बुलबुल को तो फड़कना ही होगा वरना अड्डे पर मनहूसियत छा जायेगी।" गुरु ने जवाब दिया।

बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन' की मृत्यु पर भैरोघाट की शोकाकुल भीड़ के बीच भी मुन्नू गुरू की प्रतिक्रिया सबसे अलग थी। बोले- उनके लिये शोक कैसा? जब तक दुनिया में थे,अगल-बगल घूमती थीं अब स्वर्ग में भी घेरे होगीं।

'हमारा मजमा तो फुदकते कुरीजों का चहचहाता चमन है-एक उछाल इधर को आये,एक उछाल उधर को जाये। '



एक दिन मुन्नू गुरू ने किसी राहगीर को देखा जिसके होंठों पर बीड़ी सुलग रही थी तथा दूसरी कान में खुँशी थी। यह देखते ही पहले तो वे कहकहे से दोहरे हुये फिर कह उठे- "वाह,एक रिजर्व फण्ड में दूसरी चालू है।"

रामप्रकाश शुक्ल 'शतदल' को 'मुन्नू गुरू' सद्दल कहते। एक बार की मुलाकात का जिक्र करते हुये शतदल जी को गुरू जी ने अपने घर के पास पान की दुकान पर बेंच कब्जियाये रंजन अधीर,विजय किशोर मानव के साथ पकड़ लिया। पूछा- क्या रंग पानी है?

सब ठीक ,आपका आशीर्वाद है।

ये नई भरती कउन है तुम्हारी मंडली मा?

गुरू ये कानपुर की नई पीढ़ी का नगीना है,असली पानीदार।

गुरु ने अब सीधा सवाल किया - का नाम है?

'विजय किशोर मानव।'

'कउन आस्पद?'

'तिवारी।'

पान लग चुके थे। खाये गये। गुरु चबूतरे से उतर कर फुटपाथ पर आ गये। बोले-'यो अगर नगीना है तो जरा घरै चलि के फड़काओ। हियां ठण्ड मा काहे सिकुड़ि रहे हौ?

घर की तरफ चलते हुये गुरू बोले- 'अभी जब तुम लोग उधर सुना सुनाई कर रहे थे तो हमारे कान फड़क रहे थे।'

घर पहुंच के बोले- 'हाँ बेटा मानव,अब जरा फुल वालूम मा चालू हुइ जाव।'

मानव को सुनते हुये गुरू तारीफकरते रहे-' कमाल है बेटा। ... बहुत अच्छे शाबास।...और क्या,कानपुर का मिट्टी -पानी है। और सुनाओ।

मानव के बाद गुरू बोले-'हां अब आओ बेटा सद्दल !ऊँट पहाड़ के नीचे आवै। ..अपनेहो गीत फड़काओ।'पांच सात गीत सुनने के बाद बोले- 'जियो बेटा, बहुत गहिरे जा रहे हो।'

रात काफी हो गयी थी। तारीख बदल चुकी थी। घड़ी देखने पर गुरू बोले-' देखौ,ये खलीफा गीरी यहां नहीं चलेगी।..हमारी महफिल में घड़ी उतार के बैठा करो। अउवल तो आग लगाया न करो,अब लगाई है तो ठीक से बुझाओ।'

फिर दूसरा चक्र चला।
दूसरे चक्र के बाद जब इधर -उधर बातें घुमाने के बाद निकले तो गुरू बोले- आज मइदान छोड़ गए तुमलोग,किसी दिन इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा।

बाहर आकर शेर याद आया:-

मकतबे-इश्क का दस्तूर निराला देखा,
उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक याद हुआ।


'देखौ,ये खलीफा गीरी यहां नहीं चलेगी।..हमारी महफिल में घड़ी उतार के बैठा करो। अउवल तो आग लगाया न करो,अब लगाई है तो ठीक से बुझाओ।'


मुन्नू गुरू सबंधों की मर्यादा का हमेशा पालन करते थे। कानपुर में फूलबाग में किसी साल प्रसिद्ध गायिका निर्मला अरुण(स्टार गोविंदा की मां) बुलाई गयीं। गुरू रोज फूलबाग जाते-मित्र मण्डली के साथ। गुरू,निर्मलाजी की गायिकी पर मुग्ध हो गये। आग्रह करके कानपुर में दो -चार दिन के लिये रोक लिया।क्योंकि सुनने वालों का मन तो भरा न था। निर्मलाजी से ठुमरी की एक बंदिश- 'ना जा पी परदेश' खूब सुनी जाती। रोज सुनी जाती,पर किसी का दिल न भरता।

मुन्नू गुरू तो इसे सुन कर रो पड़ते।कई दिनों बाद निर्मलाजी को कानपुर कानपुर से बिदा किया गया।संगी साथी उन्हें स्टेशन छोड़ने गये। विदा करते समय सबकी आंखें नम। ट्रेन चली गई। स्टेशन से बाहर आकर गुरू को याद आया कि निर्मलाजी का टिकट तो उनकी जेब में ही पड़ा रह गया। गुरू बोले-'यार, बहिनियाँ क्या सोचेगी! कनपुरिया कितने गैरजिम्मेदार हैं। परेशानी में पड़ जायेगी प्यारे ,बम्बई तक का सफर है।'

सोचा गया,अब क्या हो? गुरू ने तत्काल फैसला किया। बोले- 'तुरन्त टैक्सी बुलाओ,चलते हैं पुखरायाँ तक गाड़ी पकड़ लेंगे और टिकट निर्मला जी के हवाले कर देंगे।'

गाड़ी का पीछा करते-करते झाँसी पहुंच गये। प्लेटफार्म पर जा खड़े हुये। टिकट निर्मलाजी के हवाले करके भूल सुधारी गई और ठहाका लगा।

उसी दिन से मुन्नू गुरू और निर्मला जी एक दूसरे को भाई-बहन का दर्जा देने लगे। जिसका निर्वाह मुन्नू गुरू आजीवन करते रहे तथा मुन्नू गुरू के परिवार वाले आज भी करते हैं।

मुन्नू गुरु के बारे में अटल बिहारी बाजपेयी जी ने लिखा है:-

पंडित जितेन्द्र कुमार मिश्र उर्फ मुन्नू गुरू बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। साहित्य एवं काव्य में उनकी गहरी रुचि थी। व्यवसाय से जौहरी होते हुये भी संगीत एवं काव्य सम्मेलनों में हमेशा दिखाई देते थे। कानपुर नगर के बुद्धिजीवी वर्ग में पहचाने जाने वाले मुन्नू गुरू राजनीति में भी रुचि रखते थे। वे जीवन पर्यन्त कांग्रेस से जुड़े रहे। इंदिराजी के समर्थकों ने जब कानपुर में सत्याग्रह किया तब वे भी जेल गये।कानपुर वासियों को मुन्नू गुरू की कमी खलती रहेगी।
'मुन्नू गुरू' से जो नहीं मिला उसे यह न मिलने का अफसोस रहा तथा जो मिला उसे भी यह अफसोस रहा कि वह पहले क्यों नहीं मिला।


२८ फरवरी,१९२६ को हटिया ,कानपुर में जन्में 'मुन्नू गुरु' का देहावसान २७ अक्टूबर १९८० को हुआ।उनके निर्वाण पर उनके एक स्नेही ने कहा- "डा.साहब चला गया हरियाला बन्ना।"

मुन्नू गुरू के निर्वाण पर जब लोगों ने नरेशचन्द्र चतुर्वेदी से उनके बारे में आगे लिखने को कहा तो उनका कहना था- 'मुन्नू गुरू' पर जो कुछ लिखा जाना चाहिये उसे लिखना जितना कठिन है उतना ही कठिन है उसको सराहना। इस कठिन काम को मेरे उस स्वर्गवासी मित्र के अलावा और कौन कर सकेगा? उनकी जो स्मृतियां जो हमारे पास हैं उन्हें संजोये रखना ही उचित है।

'मुन्नू गुरू' से जो नहीं मिला उसे यह न मिलने का अफसोस रहा तथा जो मिला उसे भी यह अफसोस रहा कि वह पहले क्यों नहीं मिला।

कानपुर में स्मृति संस्था प्रतिवर्ष 'मुन्नू गुरू ' की याद में कवि सम्मेलन तथा संगीत सम्मेलन करती है। यह संस्मरण स्मृति के २००५ में हुये आयोजन के अवसर पर प्रकाशित स्मारिका के आधार पर लिखा गया।

मेरी पसंद

लहर ने समंदर से उसकी उम्र पूछी
समंदर मुस्करा दिया।

लेकिन,
जब बूंद ने
लहर से उसकी उम्र पूछी
तो लहर बिगड़ गई
कुढ़ गई
चिढ़ गई
बूंद के ऊपर ही चढ़ गई
और मर गई।

बूंद ,
समंदर में समा गई
और समंदर की उम्र बढ़ा गई।
-अशोक चक्रधर





Wednesday, May 7, 2008

गिरिराज किशोर जी से बातचीत

निरंतर में पूर्वप्रकाशित



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दुनिया के जिस किसी भी मंच पर महात्मा गांधी की बात होती तो 'पहलागिरमिटिया'की बात जरूर होती है।
गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका के प्रवास के समय के आधार पर लिखी गयी यह जीवनी दुनिया के लिये वह खिड़की है जिससे गांधी के निर्माण की प्रक्रिया के बारे में जाना जा सकता है।'
'पहलागिरमिटिया'के लेखक गिरिराज किशोर जी के लिये गांधी के बारे में लिखना आत्मसाक्षात्कार का एक जरिया रहा।

सन १९३७ में मुजफ्फरनगर में जन्में गिरिराज जी ने एम.एस.डब्ल्यू.(मास्टर्स इन सोसल वेलफेयर) की शिक्षा प्राप्त की। आई.आई.टी.कानपुर में रजिस्ट्रार (१९७५-८३)तथा रचनात्मक लेखन एवं प्रकाशन केन्द्र के अध्यक्ष (१९८३-९७)के पद पर रहे।

प्रमुख रचनाओं में लोग,चिड़ियाघर,जुगलबंदी,तीसरी सत्ता,दावेदार,यथा-प्रस्तावित,इन्द्र सुनें,अन्तर्ध्वंस,परिशिष्ट,यात्रायें,ढाईघर (सभी उपन्यास)के अलावा दस कहानी संग्रह,सात नाटक,एक एकांकी संग्रह,चार निबंध संग्रह तथा महात्मा गांधी की जीवनी 'पहला गिरमिटिया'प्रकाशित।उत्तर प्रदेश के भारतेन्दु पुरस्कार(नाटक पर),'परिशिष्ट'उपन्यास पर मध्यप्रदेश साहित्य परिषद के वीरसिंह देव पुरस्कार,साहित्य अकादेमी पुरस्कार (१९९२)उत्तर प्रदेश हिंदी सम्मेलन के वासुदेव सिंह स्वर्ण पदक तथा' ढाई घर'उ.प्र.के लिये हिंदी संस्थान के साहित्य भूषण से सम्मानित।

फिलहाल गिरिराज जी स्वतंत्र लेखन तथा कानपुर से निकलने वाली हिंदी त्रैमासिक पत्रिका 'अकार' त्रैमासिक के संपादन में संलग्न हैं।

आमतौर पर देखा गया है कि लेखक की शुरुआती दौर में लिखी गयी किसी मशहूर कृति की छाया से बाद की रचनायें निकल नहीं पातीं।गिरिराज जी का लेखन इसका अपवाद है और इनकी हर नयी रचना का कद पिछली रचना से के कद से ऊंचा होता गया ।देश के इस प्रख्यात साहित्यकार को'कनपुरिये' अपना खास गौरव मानते हैं।अपनी विनम्रता,सौजन्यता के लिये जाने जाने वाले गिरिराज जी मानते हैं -सख्त से सख्त बात शिष्टाचार के आज घेरे में रहकर भी कही जा सकती है।हम लेखक हैं।शब्द ही हमारा जीवन है और हमारी शक्ति भी ।उसको बढ़ा सकें तो बढ़ायें,कम न करें।भाषा बड़ी से बड़ी गलाजत ढंक लेती है।

नामसाम्य के कारण अक्सर लोग गिरिराजजी को उनसे धुर उलट सोच वाले आचार्य गिरिराजकिशोर के नाम से संबोधित कर बैठते हैं।

गिरिराज जी से 'निरंतर'के लिये जब बात करने पहुंचा तो पत्रिका के कलेवर,सोच और हिंदी चिट्ठाकारों की सहयोगी प्रवृत्ति को देखकर बहुत खुश हुये।उनसे हुयी बातचीत के प्रमुख अंश यहां प्रस्तुत हैं।

आपकी रचनायात्रा में आई.आई.टी.कानपुर का खासा योगदान रहा।इस दौरान काफी कष्ट भी उठाने पड़े।क्या परिस्थितियां रहीं।

देखिये जब मैं आई.आई.टी.गया था तो दो बातें थीं।एक तो मैं हिंदी का आदमी था दूसरे मैं 'नान टेक्निकल'।तो वहां के लोगों ने शुरु में मुझे बिल्कुल 'वेलकम' नहीं किया ।बल्कि विरोध किया और उसके कारण मुझे मुझे तमाम कष्ट उठाने पड़े।एक और बात थी कि मेरा लगाव वहां के छात्रों तथा दूसरी-तीसरी श्रेणी के कर्मचारियों (मिडिल लेवेल मैनेजमेंट )से ज्यादा था जिसे वहां के 'टाप लीडर्स' या फैकल्टी नापसंद करती थी। मेरे सामने एक बड़ा सवाल था (जैसा फिजिक्स के प्रोफेसर डायरेक्टर वेंकटेश्वर लू कहते भी थे)कि ये प्रोफेसर जो विदेशों में रहते हुये अपना सारा काम खुद करते हैं वे यहां चपरासियों को लेकर लड़ाई करते थे।इसी सब को लेकर वहां फैकल्टी से कभी-कभी कहा-सुनी,तनाव हो जाता था। सस्पेन्ड भी हुआ मैं। मुकदमा लड़ना पड़ा।हाईकोर्ट से बाद में जीता मैं।बहाल हुआ।डायरेक्टर को तथा चेयरमैन थापर को इस्तीफा देना पड़ा।तमाम कष्ट के बावजूद मैंने प्रयास किया कि इंस्टीट्यूट को नुकसान न होने पाये।

वहां हिंदी क्या स्थिति थी उन दिनों?आपके आने पर हालात कुछ बदले क्या?

मेरे आने से पहले वहां हिंदी में कोई बात नहीं करता था।सब जगह अंग्रेजी में बोर्ड लगे थे।मैंने द्विभाषी कराये। लोगों में बदलाव आये।लोग-बाग हिंदी में बात करने लगे। जब मैं जीतकर,बहाल होकर आया तो मैंने उनसे कहा-देखिये आपको भी मुझसे असुविधा है,मुझे भी आपसे।मैं एक रचनात्मक लेखन केन्द्र खोलना चाहता हूं।जिसे उन्होंने सहर्ष मान लिया।

आपके किसी उपन्यास में फैकल्टी द्वारा सताये जाने पर किसी छात्र की आत्महत्या का जिक्र है!

हां,सरकार का एक आदेश आया की एस.सी,एस.टी. छात्रों की भर्ती कोटे से की जाये।तो उनका 'कट प्वाइंट'बहुत'लो' कर दिया गया।तब तक कम्टीशन नहीं लागू हुआ था।इसका वहां के अन्य छात्रों व फैकल्टी के लोगों ने बहुत विरोध किया।जिसके कारण इन छात्रों को बहुत 'सफर 'करना पड़ा।उनकी पढ़ाई में समस्या आयी।उनको 'लुक डाउन'किया गया।लोग उनको सपोर्ट'नहीं करना चाहते थे।पढ़ाना नहीं चाहते थे उनको।'ह्यूमिलियेट' करते थे ।क्लास में ताने मारते थे उन पर कि आप लोग कहां से आ गये।इससे तंग आकर एक छात्र ने आत्महत्या कर ली।मैंने 'परिशिष्ट' उपन्यास में इसका जिक्र किया है।

मेरे एक मित्र जो कि स्वयं आई.आई.टी.में सहायक व्याख्याता हैं का मानना है कि करोड़ों अरबों के आई आई टी बनाने से, बेहतर होगा कि हम अच्छे पांलीटेक्निक और आई टी आई बनायें, ऐसे लोग जो कि सचमुच में इंजीनियेरिंग करते हैं । आप वहां लंबे अर्से रहे ।आपकी क्या सोच है इस बारे में?

मैं आपके मित्र की बात से सहमत हूं।यह सही है कि आई.आई.टी.से देश को कोई फायदा नहीं है।असल में ये टेक्निकल लेबर के रिक्रूटिंग इंस्टीट्यूट हैं।सेन्टर हैं विकसित देशों के लिये।हम अपने कुशल तकनीकी लेबर उनको सप्लाई करते हैं। ज्यादातर लोग विदेश चले जाते हैं जहां इनको हाथों-हाथ लिया जाता है।जो रह जाते हैं यहां वे बहुराष्टीय कम्पनियोंमें चले जाते हैं।देश को इनसे बहुत कम फायदा है।



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क्या कारण है कि यहां के भर्ती होने के बाद ज्यादातर छात्रों का तन तो यहां रहता है पर मन अमेरिका में?

यहां ज्यादातर छात्र मध्यवर्ग से आते हैं।वहां की सुख-सुविधायें आकर्षित करती हैं।यहां भी जो 'फैकल्टी' होती है वह ऐसा
वातावरण तैयार करती है । पाठ्यक्रम(केस स्टडी) वहां के हिसाब से होता है।अमेरिका से डाटा लेकर उसे यहां फीड करके प्लानिंग की जाती है।जिससे स्वाभाविक रूप से वहां जाने की ललक होती है। एक लड़का था जो विदेश नहीं जाना चाहता था बाद में वहां जाकर इतना रम गया कि वापस आने का नाम नहीं लिया।वह अपने सीनियर्स के लिये रोबोट की तरह हो गया।
मैंने अपने उपन्यास अन्तर्ध्वंस में इसका जिक्र किया है।इससे भी लोग यहां लोग मुझसे नाराज हुये।

देखा गया है कि परदेश जाने के बाद लोगों के मन में देश के लिये प्यार बढ़ जाता है।काफी आर्थिक सहायता करने लगते है वे देश की।

जब विदेश जाते हैं लोग तो देश की यादें आना,लगाव होना स्वाभाविक होता है।अतीत दूर तक पीछा करता है।एक लड़का विदेश में परिचित प्रोफेसर से मिलने जाता है तो वह पूंछता है कि तुम अरहर की दाल लाये हो?उसके पास सहगल,रफी के पुराने गानों के कैसेट हैं।वह कहता है कि जब मैं यहां की जिंदगी से ऊबता हूं तो इन रिकार्ड को सुनने लगता हूं।

जो आर्थिक सहायता वाली बात है वो कुछ हद तक सच है।होता यह है कि देश के लिये जो वो पैसा भेजते हैं उनका अधिकतर भाग 'फंडामेंटलिस्ट'के पास पहुंच जाता है।वे तो समझते कि वे देश की मदद कर रहे हैं लेकिन चक्र कुछ ऐसा बनता है कि उनका पैसा देश की मदद में न लगकर देश को बांटने में लग जाता है।

पहला गिरमिटिया लिखने के पहले और गांधी के बारे में आठ साल शोध करके इसे लिखने के बाद आपने अपने में कितना अन्तर महसूस किया?

देखिये मैं आपको एक बात सच बताऊं कि अगर मैं आई.आई.टी.न गया होता तो शायद पहला गिरमिटिया न लिख पाता। वहां मैंने जिस ह्यूमिलियेशन व कठिनाइयों का सामना किया तो कहीं न कहीं मुझे गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में जो अनुभव किये होंगे(हालांकि न मेरी गांधी से कोई बराबरी है न मैं वैसी स्थिति में हूं)उनके बारे में सोचने की मानसिकता बनी।मुझे लगा कि हमें इस बात को समझना चाहिये कि ऐसी कौन सी शक्ति थी जिसने इस आदमी को महात्मा गांधी बनाया।
एक आम ,डरपोक किस्म का आदमी जो बहुत अच्छा बोलने वाला भी नहीं था।वकालत में भी असफल।इतना फैशनेबल आदमी । वह इतना त्यागी और देश के लिये काम करने वाला बना ।मुझे हमेशा लगता रहा कि जरूर उसने अपने तिरस्कार से ऊर्जा ग्रहण की जिसके कारण वह अपने को इतना काबिल बना पाया।इससे मुझे भी अपने को प्रेरित करने की जरूरत महसूस हुई।

दक्षिण अफ्रीका में लोग गांधी को किस रूप में देखते हैं?
मैंने पहले भारत के गांधी के बारे में लिखना शुरु किया था।जब मैं दक्षिण अफ्रीका गया तो वहां हासिम सीदात नाम के एक सज्जन ने मुझसे कहा-देखिये गांधी हमारे यहां तो जैसे खान से निकले अनगढ़ हीरे की तरह आया था जिसे हमने तराशकर आपको दिया।आपको तो हमारा शुक्रिया अदा करना चाहिये। अगर आपको लिखना है तो इस गांधी पर लिखिये।उनकी बात ने मुझे अपील किया तथा मैंने उस पर लिखा।

जब यह प्रकाशित हुआ था तो कुछ लोगों मसलन राजेन्द्र यादव ने इसका भारी-भरकम होना ही एक विशेषता बतायी थी।

इसका एक कारण है कि हिंदुस्तान में एक वर्ग है जो गांधी को पसन्द नहीं करता।उनको लगता है कि गांधी के वर्चस्व से लेफ्टिस्ट मूवमेंट पर असर पड़ेगा।हालांकि वामपंथियों ने भी इसे बहुत सराहा।नामवर सिंह ने सराहना की।राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े विष्णुकान्त शास्त्रीजी ने बहुत तारीफ की।हर एक की सोच अलग होती है।हर एक को अपनी धारणा बनाने का अधिकार है।

लोग कहते हैं गांधीजी अपने लोगों के लिये डिक्टेटर की तरह थे।अपनी बात मनवा के रहते थे।आपने क्या पाया ?वो तो देखिये जब आदमी कुछ सिद्धान्त बना लेता है तो उनका पालन करना चाहता है।जैसे किसी ने त्याग को आदर्श बनाया तो उपभोग की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना चाहता है।गांधीजी तानाशाह नहीं थे।हां उनके तरीके अलग थे।एक घटना बताता हूं:-
गांधी एक बार इटली के तानाशाह मुसोलिनी से मिलने गये।साथ में उनके सचिव महादेवदेसाई तथा मीराबेन और मुसोलिनी का एक जनरल था जिससे मुसोलिनी नाराज था।गांधीजी उसी जनरल के घर रुके।थीं।मुसोलिनी ने गांधी का स्वागत किया और एक कमरे में गये सब लोग जहां केवल दो कुर्सियां थीं।मुसोलिनी ने गांधी को बैठने को कहा।गांधी ने तीनों को बैठने को कहा।तो ये कैसे बैठें ?मुसोलिनी ने फिर गांधी को बैठने को कहा।गांधी ने फिर तीनों से बैठने को कहा।तीन बार ऐसा हुआ।आखिरकार
तीन कुर्सियां और मंगानी पड़ीं।तब सब लोग बैठे।तो यह गांधी का विरोध का तरीका था।कुछ लोग इसे डिक्टेटरशिप कह सकते हैं।
इसी तरह दूसरे विश्वयुद्ध में उन्होनें हिटलर को लिखा था:-यू आर रेस्पान्सिबल फार द वार एन्ड यू हैव टु वाइन्ड इट अप।मैंने इस पर हिटलर का जवाब भी देखा।उसने लिखा था:-नो दीस प्यूपल आर ब्लेमिंग मी अननेसेसरली.एक्चुअली दे आर रेस्पान्सिबल फार द वार.एन्ड यू मस्ट टाक टु देम।

मीरा बेन के बारे में सुधीर कक्कड़ ने लिखा है कि वे गांधीजी को चाहती थीं।गांधीजी के मन में भी उनके लिये कोमल भाव थे।सचाई क्या थी?

इस तरह से अनर्गल बातें लिखने का कोई आधार नहीं है।मीरा बेन लंदन से गांधी के लिये तो ही आयीं थीं।गांधी को समर्पित होकर।वे उनके प्रति आसक्त भी थीं।ब्रिटेन की संस्कृति के हिसाब से इसमें कुछ अटपटा नहीं था।पर गांधी ने कई बार उनको अपने से दूर रखा।समझाते रहे।पत्र लिखते रहे कि मेरे पास आने के बजाय तुम काम करो।सेवा करो।इससे तुम्हें शान्ति मिलेगी।

आपकी कौन सी कृति ऐसी है जिसे आप जैसा चाहते थे वैसा लिखपाये?

ऐसा कभी नहीं हुआ।रचनात्मकता में ऐसा होता है कि आदमी जो करना चाहता वह नहीं कर पाता ।और चीजें जुड़ती जाती हैं। मानव मस्तिष्क कुछ इस तरह है कि जब आप कुछ करना शुरु करते हैं तो काम शुरु करने पर नई-नई संभावनायें नजर आने लगती हैं।वह उस रास्ते चल देता है।पुरानी चीजें छूट जाती हैं।नयी दिशायें खुलती हैं।जब मैंने गांधी पर लिखना शुरु किया
तो भारत के गांधी मेरे सामने थे।जब दक्षिण अफ्रीका गया तो पाया कि असली गांधी तो यहां हैं-मैं उस तरफ चल पड़ा।यह रचनात्मकता की एक सीमा भी है और उसका विस्तार भी।

कानपुर के वर्तमान साहित्यिक परिवेश के बारे में क्या विचार हैं आप के?

पहले यहां साहित्यिक नर्सरी थी।रमानाथ अवस्थी,नीरज,उपेन्द्र जैसे गीतकार यहां हुये ।प्रतापनारायण मिश्र , विशंभरनाथशर्मा 'कौशिक'सरीखे गद्य लेखक थे।प्रेमचंद भी थे।अब छुटपुट लोग हैं।वे भी कितना कर पाते हैं।उनकी भी
सीमायें हैं।
कानपुर कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाता था।आज मिलें बंद हो गयीं।कानपुर किसी उजड़े दयार सा लगता है।क्या ट्रेड यूनियनों के ईंट से ईंट बजा देने के जज्बे की भी इस हालत तक पहुंचने के लिये जिम्मेदारी है?

मेरी व्यक्तिगत राय यह है कि विदेशों में जो मार्क्सवादी गतिविधियां हुयीं उसमें उन्होंने उत्पादन नहीं प्रभावित होने दिया।विरोध किया पर उत्पादन चलता रहा।हमारे यहां उत्पादन सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ।आप अधिकार मांगिये,सब बातें करिये पर जो मांगों का मूल आधार है(उत्पादन)उसे ठप्प कर देंगे ,फैक्ट्री बंद कर देंगे तो बचेगा क्या?लड़ेंगे किसके लिये?सन् ६७ में जब मैं यहां आया था तो ये सब फैक्ट्रियां चलतीं थीं।शाम को यहां सड़क पर घण्टे भर लोगों के सर ही सर नजर आते थे।दुकानें थीं।बहुत से लोग बैठते थे।सामान बेचते थे।लोग उधार ले जाते ।तन्ख्वाह मिलने पर पैसा चुका देते।लेकिन मिलों के बंद होने से सब बेरोजगार हो गये।पहले जब कोई मरता था तो उसके बच्चे को रोजगार मिल जाता था।अब खुद की नौकरी गयी,बच्चे का भी आधार गया।जो दुकानदार अपनी बिक्री के लिये इन पर निर्भर थे वे भी उजड़ गये।इस बदहाली के मूल में कहीं न कहीं आधार की अनदेखी करना कारण रहा।

आज दुनिया में अमेरिकी वर्चस्व बढ़ता जा रहा है।अपनी पिछली चीन यात्रा में आपने वहां क्या बदलाव देखे?

मैं पिछले साल अक्टूबर में चीन गया था।वहां देखा कि चीन एकदम अमेरिका हो गया है।चीनी महिलायें अपनी पारम्परिक पोशाक छोड़कर अमेरिकन शार्टस ,स्कर्ट में दिखीं।मेरे ख्याल में महिलायें ज्यादा आजाद हुयीं हैं वहां आदमियों के मुकाबले।

जब आपने अमेरिकन टावरों पर हमला होते देखा टीवी पर तो आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या थी?

हालांकि मैं हिंसा का हिमायती नहीं हूं पर मैंने इस बारे में 'अकार' के संपादकीय में लिखा था -ऐसा लगा जैसे किसी साम्राज्ञी को भरी सभा में निर्वस्त्र कर दिया गया हो।सारे देशों के महानायक उसे शर्मसार होने से बचाने के लिये समर्थनों
की वस्त्रांजलियां लेकर दौड़ पड़े हों।
उसके बाद हमें यह भी दिखा कि कितने डरपोंक हैं अमेरिकन।मरने से कितना डरते हैं वे। मुझे लगता है कि अगर एकाध बम वहां गिर जाते तो आधे लोग तो डर से मर जाते।वे।पाउडर के डर से हफ्तों कारोबार ठप्प रहा वहां।



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हंस में जो मेरे विश्वासघात के नाम से लोगों में अपने यौन विचलनों को खुल के लिखने की शुरुआत हुयी इसको आप किस तरह देखते हैं?

यह तो उकसावे का लेखन है।पानी पर चढ़ाकर लिखवाना।राजेन्द्रयादव ने देह वर्जनाओं से मुक्ति के नाम पर लिखने को उकसाया। बाद में रामशरण जोशी ने कहा भी कि इसे मत छापो पर राजेन्द्र यादव ने छाप दिया।इसी के कारण उसकी नौकरी भी चली गयी।दरअसल एक संपादक का यह भी दायित्व होता है कि वह देखे कि जो वह छापने जा रहा है उससे लेखक का कोई नुकसान तो नहीं हो रहा।राजेन्द्र यादव ने यह नहीं देखा।भुगतना पड़ा लेखक को।

आज देश की हालत को आप किस रूप में पाते हैं?भविष्य कैसा सोचते हैं आप इसका?
आज देश की राजनैतिक हालत बहुत खराब है।नेताओं में कोई ऐसा नहीं है जो आदर्श प्रस्तुत कर सके।अटलजी जैसे नेता तक रोज अपने बयान बदलते हैं।ऐसे में निकट भविष्य में किसी बड़े बदलाव के आसार तो मैं नहीं देखता।आगे यह हो सकता है कि युवा पीढ़ी अपने आदर्श खुद तय करे।ग्लोबलाइजेशन का यह फायदा हो सकता है कि लोगों में आगे बढ़ने की प्रवृत्ति बढ़े तथा वह आर्थिक समानता के लिये प्रयास करे और विकास की गति तय हो।

आपकी पसंदीदा पुस्तकें कौन सी हैं?
मुझे नरेश मेहता की -यह पथ बंधु था,यशपाल का -झूठा सच,अज्ञेय की -शेखर एक जीवनी काफी पसंद हैं।अभी मैं पाकिस्तान गया था तो वहां झूठा सच बहुत याद आया।

पसंदीदा व्यंग्य लेखक कौन हैं आपके?

शरद जोशी मुझे बहुत अच्छे लगते रहे।आजकल ज्ञानचतुर्वेदी बढ़िया लिख रहा है।

निरंतर पाठकों के लिये कोई संदेश !


मुझे तो आप लोगों का यह प्रयास बहुत अच्छा लगा।जिस तरह अलग-अलग देशों रहने वाले आप भारतीय लोग हिंदी के प्रसार के लिये प्रयत्नशील हैं वह सराहनीय है।मेरे ख्याल में इसकी इस समय जबरदस्त जरूरत है।इससे विज्ञान की भाषा बनने में भी बहुत मदद मिलेगी।आगे चलकर यह बहुत काम आयेगा।जिस तरह आज अखबार रीजनल,लोकल होते जा रहे हैं ,उनका दायरा सिमटता जा रहा है।ऐसे समय में नेट के माध्यम से दुनिया तक पहुंचने के प्रयास बहुत जरूरी हैं।आप सभी को मैं इस सार्थक काम में लगने के लिये बधाई देता हूं तथा सफलता की मंगलकामना करता हूं।

Monday, May 5, 2008

झाड़े रहो कलट्टरगंज, मण्डी खुली बजाजा बंद

ऐसा माना जाता है कि कनपुरिया बाई डिफ़ाल्ट मस्त होता, खुराफ़ाती है, हाजिर जवाब होता है।(जिन कनपुरियों को इससे एतराज है वे इसका खंडन कर दें , हम उनको अपवाद मान लेंगे।) मस्ती वाले नये-नये उछालने में इस् शहर् का कोई जोड़ नहीं है। गुरू, चिकाई, लौझड़पन और न जाने कितने सहज अनौपचारिक शब्द यहां के माने जाते हैं। मुन्नू गुरू तो नये शब्द गढ़ने के उस्ताद थे। लटरपाल, रेजरहरामी, गौतम बुद्धि जैसे अनगिनत शब्द् उनके नाम से चलते हैं। पिछले दिनों होली पर हुयी एक गोष्ठी में उनको याद करते हुये गीतकार अंसार कम्बरी ने एक गजल ही सुना दी- समुन्दर में सुनामी आ न जाये/ कोई रेजर हरामी आ न जाये।

जैसे पेरिस में फ़ैशन बदलता है, उसके साथ वैसे ही कानपुर में हर साल कोई न कोई मौसम उछलता है वैसे ही कानपुर् में कोई न् कोई जुमला या शब्द् हर साल् उछलता है और कुछ दिन जोर दिखा के अगले को सत्ता सौंप देता है। कुछ साल पहले नवा है का बे का इत्ता जोर रहा कि कहीं-कहीं मारपीट और स्थिति तनावपूर्ण किंतु नियंत्रण में है तक पहुंच गयी।

कानपुर् के ठग्गू के लडडू की दुकानदारी उनके लड्डुऒं और् कुल्फ़ी के कारण् जितनी चलती है उससे ज्यादा उनके डायलागों के कारण चलती है-

ठग्गू के लड्डू

1.ऐसा कोई सगा नहीं
जिसको हमने ठगा नहीं

2.दुकान बेटे की गारंटी बाप की

3.मेहमान को मत खिलाना
वर्ना टिक जायेगा.

4.बदनाम कुल्फी --
जिसे खाते ही
जुबां और जेब की गर्मी गायब

5.विदेसी पीते बरसों बीते
आज देसी पी लो--
शराब नहीं ,जलजीरा.


दो दिन पहले अगड़म-बगड़म शैली के लेखक आलोक पुराणिक अपने कानपुर् के अनुभव सुना रहे थे। बोले -कनपुरिये किसी को भी काम् से लगा देते हैं। मुझे लगता है कि अगर वे रोज-रोज नयी-नयी चिकाई कर् लेते हैं तो इसका कारण उनका कानपुर में रहना रहा है। राजू श्रीवास्तव के गजोधर भैया कनपुरिया हैं इसीलिये इतने बिंदास अंदाज में हर चैनेल पर छाये रहते हैं।


कानपुर में मौज-मजे की परम्परा के ही चलते भडौआ साहित्य का चलन हुआ जिसमें नये-नये अंदा़ज में पैरोडियों के माध्यम से स्थापित लोगों की खिंचाई का पुण्य काम शुरू हुआ। आज किसी एक् शहर के सर्वाधिक सक्रिय ब्लागर की गिनती की जाये तो वे कानपुर के ही निकलेंगे। यह भी कि इनमें से ज्यादातर मौज-मजे वाले मूड में ही रहते हैं(अभय तिवारीजी संगति दोष :) के चलते कभी-कभी भावुक हो जाते हैं) ।दिल्ली वाले इसका बुरा न मानें क्योंकि किसी शहर में जीने-खाने के लिये बस जाने से उसका मायका नहीं बदल जाता।

तमाम जुमलों और शब्द-समूहों के बीच एक जुमले की बादशाहत कानपुर में लगातार सालों से बनी हुयी है। किसी ठेठ् कानपुरिया का यह मिजाज होता है। इसके लिये कहा जाता है- झाड़े रहो कलट्टर गंज। यह अधूरा जुमला है। लोग आलस वश आधा ही कहते हैं। पूरा है- झाड़े रहो कलट्टरगंज, मण्डी खुली बजाजा बंद।

आलोक जी ने इस झन्नाटेदार डायलाग का मलतब पूछा था कि इसके पीछे की कहानी क्या है!

दो साल पहले जब मैं अतुल अरोरा के पिताजी ,श्रीनाथ अरोरा जी, से मिला था तब उन्होंने इसके पीछे का किस्सा सुनाया था जिसे उनको कानपुर् के सांसद-साहित्यकार स्व.नरेश चंद्र चतुर्वेदीजी ने बताया था। श्रीनाथजी कानपुर के जाने-माने जनवादी साहित्यकार हैं। इसकी कहानी सिलबिल्लो मेरी पसंदीदा कहानियों में से एक है। कनपुरिया जुमले का किस्सा यहां पेश है।

कानपुर में गल्ले की बहुत बड़ी मण्डी है। जिसका नाम कलट्टरगंज है। यहां आसपास के गांवों से अनाज बिकने के लिये आता है। ढेर सारे गेहूं के बोरों को उतरवाने के लिये तमाम मजूर लगे रहते हैं। इन लोगों को पल्लेदार कहते हैं।

पल्लेदार शायद् इसलिये कहा जाता हो कि जो बोरे उतरवाने-चढ़वाने का काम ये करते थे उसके टुकड़ों को पल्ली कहते हैं। शायद उसी से पल्लेदार बना हो या फिर शायद पालियों में काम करने के कारण उनको पल्लेदार कहा जाता हो।

उन दिनों पल्लेदारों को उनकी मजूरी के अलावा जो अनाज बोरों से गिर जाता था उसे भी दे दिया जाता था। दिन भर जो अनाज गिरता था उसे शाम को झाड़ के पल्लेदार ले जाते थे।

ऐसे ही एक पल्लेदार था। उसकी एक आंख खराब थी। वह् पल्लेदारी जरूर करता था लेकिन शौकीन मिजाज भी था। हफ़्ते भर पल्लेदारी करने के बाद जो गेहूं झाड़ के लाता उसको बेंचकर पैसा बनाता और इसके अलावा मिली मजूरी भी रहती थी उसके उसके पास।

शौकीन मिजाज होने के चलते वह अक्सर कानपुर में मूलगंज ,जहां तवायफ़ों का अड्डा था, गाना सुनने जाता था। वहां उसे कोई पल्लेदार न समझ ले इसलिये वह बनठन के जाता था। अपनी रईसी दिखाने के मौके भी खोजता रहता ताकि लोग उसे शौकीन मिजाज पैसे वाला ही समझें।

ऐसे ही एक दिन किसी अड्डे पर जब वह पल्लेदार गया तो उसने अड्डे के बाहर पान वाले से ठसक के साथ पान लगाने के लिये कहा। ऐसे इलाकों में दाम अपने आप बढ़ जाते हैं लेकिन उसने मंहगा वाला पान लगाने को कहा।

पान वाला उसकी असलियत् जानता था कि यह् पल्लेदार है और इसकी एक आंख खराब है। उसने मौज लेते हुये जुमला कसा- झाड़े रहो कलट्टगंज, मंडी खुली बजाजा बंद।

झाड़े रहो से उसका मतलब- पल्लेदार के पेशे से था कि हमें पता है तुम पल्लेदारी करते हो और् अनाज झाड़ के बेंचते हो। मंडी खुली बजाजा बंद मतलब एक आंख (मंडी -कलट्टरगंज) खुली है, ठीक है। दूसरी बजाजा (जहां महिलाओं के साज-श्रंगार का सामान मिलता है) बंद है, खराब है।

इस तरह् यह एक व्यंग्य था पल्लेदार पर जो पानवाले ने उस पर किया कि हमसे न ऐंठों हमें तुम्हारी असलियत औकात पता है। पल्लेदारी करते हो, एक आंख खराब है और यहां नबाबी दिखा रहे हो।

यह् एक तरह् से उस समय् के मिजाज को बताता है। अपनी औकात से ज्यादा ऐश करने की प्रवृत्ति पर व्यंग्य है-घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने। एक आंख से हीन पर दो आंखों वाले का कटाक्ष है। एक दुकानदार का अपने ग्राहक से मौज लेने का भाव है। यह अनौपचारिकता अब दुर्लभ है। अब तो हर व्यक्ति येन-केन-प्रकारेण बिकने-बेचने पर तुला है।

बहरहाल, आप इस सब पचड़े में न पडें। हम तो आपसे यही कहेंगे- झाड़े रहो कलट्टरगंज, मण्डी खुली बजाजा बंद।

कानपुर तेरे कितने नाम


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[कुछ साल पहले भारत के जिलों के नाम बदलने की प्रक्रिया शुरू हुई। कलकत्ता, कोलकता हो गया। मद्रास, चेन्नई। बंबई, मुंबई में बदल गया। और अब बंगलौर, बंगलूरु के रास्ते पर है। इस नाम परिवर्तन में हमारे कानपुर के क्या हाल हैं! बहुत पहले गांव में हम कानपुर के लिये 'कम्पू' सुना करते थे। 'कान्हैपुर' के हैं, अभी भी यदा-कदा सुनाई दे जाता है। आज से उन्नीस साल पहले जब हमने अपनी फैक्ट्री में पहली बार कदम रखा तो सोचते थे कि OFC का मतलब क्या है। बाद में पता चला कि यह Ordnance Factory, Cawnpore है। कानपुर को अंग्रेजी वर्तनी पहले यही थी। इस बारे में कानपुर से निकलने वाली अनियत कालीन पत्रिका कानपुर कल, आज और कल के खण्ड-२ में एक लेख छपा है- कानपुर ने बनाया वर्तनी का इतिहास। इसके लेखक श्रीमनोज कपूर ने यह लेख कानपुर से जुड़े लोगों की संस्था , कानपुरियम के लिये लिखा है। कानपुर के नामों के बारे में लोगों की जानकारी के लिये यह लेख मनोज कपूरजी के प्रति आभार व्यक्त करते हुये पोस्ट किया जा रहा है।]


कानपुर कब स्थापित हुआ , इस प्रश्न पर आज भी इतिहासकारों में मतैक्य नहीं है, परन्तु इस मुद्दे पर सभी एकमत हैं कि