जैसे पेरिस में फ़ैशन बदलता है, उसके साथ वैसे ही कानपुर में हर साल कोई न कोई मौसम उछलता है वैसे ही कानपुर् में कोई न् कोई जुमला या शब्द् हर साल् उछलता है और कुछ दिन जोर दिखा के अगले को सत्ता सौंप देता है। कुछ साल पहले नवा है का बे का इत्ता जोर रहा कि कहीं-कहीं मारपीट और स्थिति तनावपूर्ण किंतु नियंत्रण में है तक पहुंच गयी।
कानपुर् के ठग्गू के लडडू की दुकानदारी उनके लड्डुऒं और् कुल्फ़ी के कारण् जितनी चलती है उससे ज्यादा उनके डायलागों के कारण चलती है-
1.ऐसा कोई सगा नहीं
जिसको हमने ठगा नहीं
2.दुकान बेटे की गारंटी बाप की
3.मेहमान को मत खिलाना
वर्ना टिक जायेगा.
4.बदनाम कुल्फी --
जिसे खाते ही
जुबां और जेब की गर्मी गायब
5.विदेसी पीते बरसों बीते
आज देसी पी लो--
शराब नहीं ,जलजीरा.
दो दिन पहले अगड़म-बगड़म शैली के लेखक आलोक पुराणिक अपने कानपुर् के अनुभव सुना रहे थे। बोले -कनपुरिये किसी को भी काम् से लगा देते हैं। मुझे लगता है कि अगर वे रोज-रोज नयी-नयी चिकाई कर् लेते हैं तो इसका कारण उनका कानपुर में रहना रहा है। राजू श्रीवास्तव के गजोधर भैया कनपुरिया हैं इसीलिये इतने बिंदास अंदाज में हर चैनेल पर छाये रहते हैं।
कानपुर में मौज-मजे की परम्परा के ही चलते भडौआ साहित्य का चलन हुआ जिसमें नये-नये अंदा़ज में पैरोडियों के माध्यम से स्थापित लोगों की खिंचाई का पुण्य काम शुरू हुआ। आज किसी एक् शहर के सर्वाधिक सक्रिय ब्लागर की गिनती की जाये तो वे कानपुर के ही निकलेंगे। यह भी कि इनमें से ज्यादातर मौज-मजे वाले मूड में ही रहते हैं(अभय तिवारीजी संगति दोष :) के चलते कभी-कभी भावुक हो जाते हैं) ।दिल्ली वाले इसका बुरा न मानें क्योंकि किसी शहर में जीने-खाने के लिये बस जाने से उसका मायका नहीं बदल जाता।
तमाम जुमलों और शब्द-समूहों के बीच एक जुमले की बादशाहत कानपुर में लगातार सालों से बनी हुयी है। किसी ठेठ् कानपुरिया का यह मिजाज होता है। इसके लिये कहा जाता है- झाड़े रहो कलट्टर गंज। यह अधूरा जुमला है। लोग आलस वश आधा ही कहते हैं। पूरा है- झाड़े रहो कलट्टरगंज, मण्डी खुली बजाजा बंद।
आलोक जी ने इस झन्नाटेदार डायलाग का मलतब पूछा था कि इसके पीछे की कहानी क्या है!
दो साल पहले जब मैं अतुल अरोरा के पिताजी ,श्रीनाथ अरोरा जी, से मिला था तब उन्होंने इसके पीछे का किस्सा सुनाया था जिसे उनको कानपुर् के सांसद-साहित्यकार स्व.नरेश चंद्र चतुर्वेदीजी ने बताया था। श्रीनाथजी कानपुर के जाने-माने जनवादी साहित्यकार हैं। इसकी कहानी सिलबिल्लो मेरी पसंदीदा कहानियों में से एक है। कनपुरिया जुमले का किस्सा यहां पेश है।
कानपुर में गल्ले की बहुत बड़ी मण्डी है। जिसका नाम कलट्टरगंज है। यहां आसपास के गांवों से अनाज बिकने के लिये आता है। ढेर सारे गेहूं के बोरों को उतरवाने के लिये तमाम मजूर लगे रहते हैं। इन लोगों को पल्लेदार कहते हैं।
पल्लेदार शायद् इसलिये कहा जाता हो कि जो बोरे उतरवाने-चढ़वाने का काम ये करते थे उसके टुकड़ों को पल्ली कहते हैं। शायद उसी से पल्लेदार बना हो या फिर शायद पालियों में काम करने के कारण उनको पल्लेदार कहा जाता हो।
उन दिनों पल्लेदारों को उनकी मजूरी के अलावा जो अनाज बोरों से गिर जाता था उसे भी दे दिया जाता था। दिन भर जो अनाज गिरता था उसे शाम को झाड़ के पल्लेदार ले जाते थे।
ऐसे ही एक पल्लेदार था। उसकी एक आंख खराब थी। वह् पल्लेदारी जरूर करता था लेकिन शौकीन मिजाज भी था। हफ़्ते भर पल्लेदारी करने के बाद जो गेहूं झाड़ के लाता उसको बेंचकर पैसा बनाता और इसके अलावा मिली मजूरी भी रहती थी उसके उसके पास।
शौकीन मिजाज होने के चलते वह अक्सर कानपुर में मूलगंज ,जहां तवायफ़ों का अड्डा था, गाना सुनने जाता था। वहां उसे कोई पल्लेदार न समझ ले इसलिये वह बनठन के जाता था। अपनी रईसी दिखाने के मौके भी खोजता रहता ताकि लोग उसे शौकीन मिजाज पैसे वाला ही समझें।
ऐसे ही एक दिन किसी अड्डे पर जब वह पल्लेदार गया तो उसने अड्डे के बाहर पान वाले से ठसक के साथ पान लगाने के लिये कहा। ऐसे इलाकों में दाम अपने आप बढ़ जाते हैं लेकिन उसने मंहगा वाला पान लगाने को कहा।
पान वाला उसकी असलियत् जानता था कि यह् पल्लेदार है और इसकी एक आंख खराब है। उसने मौज लेते हुये जुमला कसा- झाड़े रहो कलट्टगंज, मंडी खुली बजाजा बंद।
झाड़े रहो से उसका मतलब- पल्लेदार के पेशे से था कि हमें पता है तुम पल्लेदारी करते हो और् अनाज झाड़ के बेंचते हो। मंडी खुली बजाजा बंद मतलब एक आंख (मंडी -कलट्टरगंज) खुली है, ठीक है। दूसरी बजाजा (जहां महिलाओं के साज-श्रंगार का सामान मिलता है) बंद है, खराब है।
इस तरह् यह एक व्यंग्य था पल्लेदार पर जो पानवाले ने उस पर किया कि हमसे न ऐंठों हमें तुम्हारी असलियत औकात पता है। पल्लेदारी करते हो, एक आंख खराब है और यहां नबाबी दिखा रहे हो।
यह् एक तरह् से उस समय् के मिजाज को बताता है। अपनी औकात से ज्यादा ऐश करने की प्रवृत्ति पर व्यंग्य है-घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने। एक आंख से हीन पर दो आंखों वाले का कटाक्ष है। एक दुकानदार का अपने ग्राहक से मौज लेने का भाव है। यह अनौपचारिकता अब दुर्लभ है। अब तो हर व्यक्ति येन-केन-प्रकारेण बिकने-बेचने पर तुला है।
बहरहाल, आप इस सब पचड़े में न पडें। हम तो आपसे यही कहेंगे- झाड़े रहो कलट्टरगंज, मण्डी खुली बजाजा बंद।
5 comments:
आप का ये ब्लोग तो अपने आप में एक क्लास हो गया। बताते रहिए कानपुर के बारे में। ब्लोग जगत में आने के बाद पहली बार कनपुरियों से मिलना हो रहा है और ये बात हमने भी नोट की कि कनपुरिए काफ़ी विटी होते हैं और सेंस ओफ़ ह्युमर काफ़ी स्ट्रोंग होता है। हमसे मेल खाता है इस लिए हमें ये सब कनपुरिए ब्लोग मित्र खूब जमें। आज पता चला कि ये ह्युमर तो यहां की मिट्टी में है। अगली बार जब लगेगा कि अपना स्टाक थोड़ा कम पड़ रहा है तो एक कानपुर का चक्कर लगा के बदनाम कुल्फ़ी खा जाएगें, मामला फ़िट हो जाएगा। है न?
जनाब ये वर्ड वेरिफ़िकेशन की क्या जरुरत है बेकार में कर्सर हिन्दी अग्रेजी में टोगल करना पड़ता है
शुक्रिया। हटा दिया वर्ड वेरीफ़िकेशन!
झाड़े रहो कलक्टरगंज - इस जुमले का तो इतना अधिक प्रभाव था और शायद हो भी, कि इसका एक किस्सा तो सिलिकॉन वैली का भी है - सही या गप्प, यह तो नहीँ कह सकता पर कभी मिलने पर ज़िक्र करूँगा।
झाड़े रहें - फेवरेट में रख लिया है - ये flickr की फोटो यहाँ बैन हैं कुछ और उपाय सोचें - rgds manish [ वैसे हमारे एक कनपुरिया मित्र हैं यहाँ जो गए महीने लड्डू उठा लाए रहे - हमें भी बांटे - याद ताज़ा हुई - [ कभी कभार मसाला भी रखते हैं ]]
क्या बात है गुरु!!!!
पूरा का पूरा मज़ा आय गया. मसालेदार लपेट लपेट के.
अब का बतावे की जरुअत पडेहगी कि हमहू कान्हैपुर के हैं?
बहुत दिनों से सोच रहा था कि कानपुर के अपने दिनों और व्यक्तिओं पर कुछ लिखूंगा.
आज पहली बार कानपुरनामा देखा तो दिल्ल गार्डेन गार्डेब्न हो गया गुरु.
जल्द ही अपने ब्लोग भारतीयम पर लिखूंगा, कानपुर के बारे में और इस ब्लोग के बारे में.
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