Friday, May 9, 2008

'मुन्नू गुरु' अविस्मरणीय व्यक्तित्व

[अतुल की एक पोस्ट के जवाब में मैंने कानपुर के बारे में लेख लिखा था- झाड़े रहो कलट्टरगंज। उसे बाद में विस्तार देना हो नहीं पाया। इधर काफी दिन से हमें लग रहा था कि अपने शहर में बहुत कुछ है जो नेट पर आना चाहिये।मेरा विचार है कि कानपुर के व्यक्तित्वों का परिचय दिया जाये।कानपुर के तमाम लोग दुनिया में प्रसिद्ध हैं उनके बारे में परिचय देने के साथ-साथ मैं ऐसे लोगों के बारे में भी बताने का प्रयास करूंगा जिनको लोग कम जानते हैं मगर उनकी स्मृति लोगों के दिलों में बसी है। शुरुआत करता हूं 'मुन्नू गुरू 'से ।]

'मुन्नू गुरु'
'मुन्नू गुरु'

कानपुर शहर की हर अदा को अगर कोई एक शब्द ध्वनित करता है तो वह है -'गुरु'। यह शब्द यहां के जीवन की अमिधा भी है,लक्षणा भी और व्यंजना भी। 'गुरु' शब्द के मायने अनगिनत हैं।यह मायने शब्दकोश में नहीं मिलते बल्कि बोलने वाले की अदा ,आवाज,भंगिमा तथा सुनने वाले से उसके संबंध के अनुसार अर्थ ग्रहण करता है।

कानपुर का यह अनेकार्थी शब्द जो आदर से लेकर हिकारत तक हर भाव व्यक्त करने के काम आता है और इस्तेमाल करने वाले के मनोभाव व्यक्त करता है। चिकहाई करने वालों से लेकर श्रद्धाविनत होने वालों तक हर किसी का काम निकाल देने वाला यह कनपुरिया शब्द काल की सीमायें लांघ कर अभी तक यथावत प्रचलित है।

'गुरु' शब्द की इस यात्रा में जिन कुछ व्यक्तित्वों ने इसे अपने जीवन की कुछ सिद्धियों का प्रसाद सौंपा है उनमें हमारे 'मुन्नू गुरु' अद्वितीय हैं। अद्वितीय इसलिये कि उन जैसा अभी तक कोई दूसरा नहीं हुआ कि जिसमें कानपुर का बांकपन अपनी बोली-बानी के साथ झलकारी मारता हो।

गुरु से पूछ भर लेव कि गुरु क्या रंग है? गुरु हरा ,केसरिया, सफेद की छटा तिरंगे से उतार कर कहेंगे-'ट्राई कलर है बाबू! हरी(भांग) छानते हैं,लाल(आंखें) दिखाते हैं, आत्मा स्वच्छ साफ,सफेद रखते हैं। धन्य है ये रंग! अरे अपने तो झोरी झंडे से हैं।

यह पंडित जितेंद्र नाथ मिश्र 'मुन्नू गुरू' का टकसाली रंग था-तिरंगा।

'ट्राई कलर है बाबू! हरी छानते हैं,लाल दिखाते हैं, आत्मा स्वच्छ साफ,सफेद रखते हैं।.


पंडित नरेशचन्द्र चतुर्वेदी (सांसद कानपुर लोकसभा)जिन्हें,वे 'नरेज्जी'कह कर ही संबोधित करते रहे थे, से उनकी खा़सी छनती थी। कहते थे-'नहीं ठीक है ,अरे वारे नरेज्जी! संग साथ की बात दूसरी है, नहीं तो जहां रख दिये जाव,वहां से अंधियारा डिरा के भाग जाय। पब्लिक पर भी यही कलर है।अपने राम तो फक्कड़ कमान के आदमी हैं।अपन तो नरेशों का साथ करते हैं।पैसों वालों का अपने ऊपर कोई कलर नहीं। अपना जायका दूसरा है।बाबू हम तो मीठे दो बोल के गुलाम हैं।बापू की लाइन पर चलते हैं। बापू का कहना था:-गोली खाओ ,बापू ने खाई,हम भी गोली खाते हैं। जो गोली नहीं खाता वह बापू की लाइन का नहीं है। लाल टोपी और लाल झंडे से क्या होयेगा,जब गोली खा के शहीद होने की विचारधारा पास नहीं। जनता तो भेड़ बकरी है ,जिधर चाहो हाँक देओ। भाई हम तो पब्लिक हैं,जनता पर तो रंग चढ़ता है मगर पब्लिक पर तो कलर होता है।'

लाल टोपी और लाल झंडे से क्या होयेगा,जब गोली खा के शहीद होने की विचारधारा पास नहीं।



अभिव्यक्ति की यह भाषा और शैली 'मुन्नू गुरू' के व्यक्तित्व को समझने की कुंजी है। शाम को भांग और ठंडाई का सेवन उनकी पहचान थी। जिसमें उनका आतिथ्य सत्कार अपनी बाँहें पसार कर आगन्तुक का स्वागत करता था। देखने सुनने में भद्दर किसान होने का भान हो। ठिगना कद,रंग गोरा और चेहरे पर काली घनी मूँछें, मुँह में दबे पान से रँगे लाल होंठ- आँखें जिस पर भंग की नशीली रंगत झांकती हुई,घुटनों तक ऊँची धोती जिसके फेंटे का छोर लटकता हुआ। मिर्जई के कुछ बन्द खुले,कुछ कसे। हाथ में एक खूबसूरत सी छड़ी। भाव प्रदर्शन में अंग-प्रत्यंग की फड़कन ,बातचीत का मौलिक मुहावरा। नरेश जी के शब्दों में -मस्ती और बांकपन की संस्कृति जैसे पुंजीभूत हो गयी हो।

बात करने और कहने की कला 'मुन्नू गुरु' की अपनी खुद की थी। तमाम शब्द मुहावरे उनकी टकसाल से निकलते और जनता में प्रचलित होते रहे।जब किसी को उनको बुद्धू कहना होता तो कहते- 'गौतम बुद्धि हैं भाई जान।' अपने निकटस्थ लोगों से मजाक करते हुये कहते- 'सेवा से इन्सान बड़ा है। कथा बैठाओ-पंजीरी बँटवाओ।'

लेखकों की खिंचाई करते हुये कहते-'सफेदी पर स्याही लग रही है,मनो रद्दी तैयार होके निकल रही है स्वामी।'

मुहावरे गढ़ने में भी वे कम नहीं थे- 'जकी आन फुट है','तलवार पुरानी मगर काट नई है','भक्ति भावना का प्रभाव है,नहीं तो जगन्नाथ जी की सवारी मंदिर में धरी रह जाती'।....इत्यादि फिकरे उनके पेटण्ट थे।

अपने शब्दों का प्रयोग वे जिस ध्वनि में करते थे उसको लिखकर बताना मुश्किल है। फिर भी,उनके साथ के लोग उनकी बातों का उन्हीं के शब्दों में दिये बिना नहीं रहते और कोई मित्र उनकी ठीक नकल कर देता तो वे पूरे शरीर को घुमा के कहते-आइ डटी रह,बड़े सच्चे प्रयोग हैं स्वामी।

उनके कुछ शब्दों के अर्थ इतने विचित्र और भीषण हैं कि यदि अपरिचित जान जाय तो झगड़ा अवश्य हो । परन्तु उनके प्रयोग का कौशल ऐसा था कि झगड़े की नौबत नहीं आती।यदि किसी अनाधिकारी व्यक्ति ने उनके शब्दों का प्रयोग किया तो वे डांटकर कहेंगे- हमारे शब्दों को तुम न उनारो,प्रयोग में तनिक चूक हुई गई तो बस,खोपड़ी पर कबूतर उड़ने लगेंगे और छत्रपती बनने में देर नहीं लगेगी।

उनकी गालियां भी अपनी मौलिकता लिये रहती थीं। रेजर हरामी,लटरपाल आदि का प्रयोग वे अक्सर करते। उनके मित्र कहते- गुरू अपने शब्दों का कोष छपवा दीजिये तो वे गम्भीरता पूर्वक उत्तर देते- 'सरकार ने कई बार बुलाकर कहा,मगर हमने मंजूर नहीं किया। बिना छपे प्रयोग बढ़ रहा है,छपने से बेपर्दगी का डर है।'

जब किसी को जाने को कहना होता तो कहते-
जाव,अब बिहारी हुइ जाव। जिससे मन न मिलता उसके लिये कहते- तुम्हें का बताई,ई कानपुर के 'खड़दूहड़'हैं,अब हमार मन तुमसे मिला है,ई मूसर चंद आइगे अब इनको हटाना ही ठीक था।

कविता सुनने के बहुत शौकीन थे। कवि सम्मेलनों में रात-रात भर जमे रहते। कवियों की हर पंक्ति पर वे अपनी मार्मिक टिप्पणी किये बिना नहीं रहते। कविता यदि जंच जाये तो जोर से 'वाह' कहने से उन्हें कोई नहींरोक सकता ।यदि नहीं जंची तो भी मनचाहा शब्द जरूर बाहर आता। कोई पंक्ति जमजाती तो कहते- 'बात तत्व की कह रहा है।'यदि कोई पंक्ति समझ न आयी तो बैठे ही बैठे कई आसन बदलते तथा कहते अपच्च हो रहा है।..घिना गया।.. नाजायज बात कह रहा है।...आदि। यदि कोई कवि राजनीतिक पार्टी का हुआ तो कहते- ये कमीनिस्ट है। ये खोखलिस्ट है।

हर पढे लिखे विद्वान का वे बेहद आदर करते थे।डा.कृपा शंकर तिवारी ने अपनी पहली मुलाकात का जिक्र करते हुये लिखा:-
मुन्नू गुरु ने पूछा- भाई साहब ,बुरा न मानियेगा आप चीर-फाड़ वाले डाक्टर हो या पढ़ाई -लिखाई वाले ?

रघुनाथ (मुन्नू गुरू के मित्र) ने बताया- अरे यार क्राइस्ट चर्च कालेज में हैं।

'अच्छा तो अपनी कम्पनी में भर्ती लायक हैं।'

डा.तिवारी को उन्होने नामलेकर कभी नहीं पुकारा।जब पुकारा आदर से डाक्टर कहकर पुकारा।जिसे प्यार करते थे अपार करते थे। डाक्टर को भी करने लगे। जिसे वे अपने स्नेह-मण्डल में शामिल कर लेते उसके लिये वे कहते थे कि यह उनकी मण्डली का आदमी है। उस मंडली में नये-नये विद्वान,कवि,कलाकार,संगीतकार भर्तीकिये जाते रहते थे।

वे प्राय: कहते थे कि 'भई देखो,अपने पास कोई डिग्री तो है नहीं मगर झार एम.ए. और पी.एच.डी. का क्लास लेते हैं। इससे कम की गुंजाइस अपने पास नहीं है।'


'भई देखो,अपने पास कोई डिग्री तो है नहीं मगर झार एम.ए. और पी.एच.डी. का क्लास लेते हैं।इससे कम की गुंजाइस अपने पास नहीं है।'


उनका उठना-बैठना पढ़े-लिखे लोगों के बीच ही अधिक था जिसे वे 'कम्पनी आफ किंग्स'कहते थे। एक बार मैं(डा.तिवारी) दुकान गया तो देखा गुरु नदारद हैं और दुकान पड़ोसी को तका गये हैं। लौट ही रहा था कि देखा गुरु रिक्शे से उतर रहे हैं। सर्राफे की दुकान को ऐसे लापरवाही से खुली छोड़कर जाने पर टोंका तो बोले-,"ऐ डाक्टर वो तो पत्थर (हीरे,पन्ने,मूंगे आदि) हैं,अपनी झोली में तो एक से एक रतन(पढ़े लिखे लोगों का साथ )है। "

रतन जतन के पारखी वे ऐसे लोगों से हमेशा दस हाथ का फासला रखते जिन्हें हमेशा गम्भीरता की मोटी चादर ओढ़े रहने का फोबिया हो चुकता था।

वे कहा करते थे-हमारा मजमा तो फुदकते कुरीजों का चहचहाता चमन है-एक उछाल इधर को आये,एक उछाल उधर को जाये।

यह तो ठीक है गुरु लेकिन उन दंगलबाजों की हरकतों का क्या इलाज होगा जो चारे की एक गोली फेंककर कभी-कभी बड़े-बड़े कुरीजों की पेटियां खुलवा लेते हैं?- सिद्धेगुरु ने पूछा।

"अरे नहीं-नहीं हमारे मजमें में ऐसे किसी कलर की कोई आमद नहीं है। बुलबुल को तो फड़कना ही होगा वरना अड्डे पर मनहूसियत छा जायेगी।" गुरु ने जवाब दिया।

बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन' की मृत्यु पर भैरोघाट की शोकाकुल भीड़ के बीच भी मुन्नू गुरू की प्रतिक्रिया सबसे अलग थी। बोले- उनके लिये शोक कैसा? जब तक दुनिया में थे,अगल-बगल घूमती थीं अब स्वर्ग में भी घेरे होगीं।

'हमारा मजमा तो फुदकते कुरीजों का चहचहाता चमन है-एक उछाल इधर को आये,एक उछाल उधर को जाये। '



एक दिन मुन्नू गुरू ने किसी राहगीर को देखा जिसके होंठों पर बीड़ी सुलग रही थी तथा दूसरी कान में खुँशी थी। यह देखते ही पहले तो वे कहकहे से दोहरे हुये फिर कह उठे- "वाह,एक रिजर्व फण्ड में दूसरी चालू है।"

रामप्रकाश शुक्ल 'शतदल' को 'मुन्नू गुरू' सद्दल कहते। एक बार की मुलाकात का जिक्र करते हुये शतदल जी को गुरू जी ने अपने घर के पास पान की दुकान पर बेंच कब्जियाये रंजन अधीर,विजय किशोर मानव के साथ पकड़ लिया। पूछा- क्या रंग पानी है?

सब ठीक ,आपका आशीर्वाद है।

ये नई भरती कउन है तुम्हारी मंडली मा?

गुरू ये कानपुर की नई पीढ़ी का नगीना है,असली पानीदार।

गुरु ने अब सीधा सवाल किया - का नाम है?

'विजय किशोर मानव।'

'कउन आस्पद?'

'तिवारी।'

पान लग चुके थे। खाये गये। गुरु चबूतरे से उतर कर फुटपाथ पर आ गये। बोले-'यो अगर नगीना है तो जरा घरै चलि के फड़काओ। हियां ठण्ड मा काहे सिकुड़ि रहे हौ?

घर की तरफ चलते हुये गुरू बोले- 'अभी जब तुम लोग उधर सुना सुनाई कर रहे थे तो हमारे कान फड़क रहे थे।'

घर पहुंच के बोले- 'हाँ बेटा मानव,अब जरा फुल वालूम मा चालू हुइ जाव।'

मानव को सुनते हुये गुरू तारीफकरते रहे-' कमाल है बेटा। ... बहुत अच्छे शाबास।...और क्या,कानपुर का मिट्टी -पानी है। और सुनाओ।

मानव के बाद गुरू बोले-'हां अब आओ बेटा सद्दल !ऊँट पहाड़ के नीचे आवै। ..अपनेहो गीत फड़काओ।'पांच सात गीत सुनने के बाद बोले- 'जियो बेटा, बहुत गहिरे जा रहे हो।'

रात काफी हो गयी थी। तारीख बदल चुकी थी। घड़ी देखने पर गुरू बोले-' देखौ,ये खलीफा गीरी यहां नहीं चलेगी।..हमारी महफिल में घड़ी उतार के बैठा करो। अउवल तो आग लगाया न करो,अब लगाई है तो ठीक से बुझाओ।'

फिर दूसरा चक्र चला।
दूसरे चक्र के बाद जब इधर -उधर बातें घुमाने के बाद निकले तो गुरू बोले- आज मइदान छोड़ गए तुमलोग,किसी दिन इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा।

बाहर आकर शेर याद आया:-

मकतबे-इश्क का दस्तूर निराला देखा,
उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक याद हुआ।


'देखौ,ये खलीफा गीरी यहां नहीं चलेगी।..हमारी महफिल में घड़ी उतार के बैठा करो। अउवल तो आग लगाया न करो,अब लगाई है तो ठीक से बुझाओ।'


मुन्नू गुरू सबंधों की मर्यादा का हमेशा पालन करते थे। कानपुर में फूलबाग में किसी साल प्रसिद्ध गायिका निर्मला अरुण(स्टार गोविंदा की मां) बुलाई गयीं। गुरू रोज फूलबाग जाते-मित्र मण्डली के साथ। गुरू,निर्मलाजी की गायिकी पर मुग्ध हो गये। आग्रह करके कानपुर में दो -चार दिन के लिये रोक लिया।क्योंकि सुनने वालों का मन तो भरा न था। निर्मलाजी से ठुमरी की एक बंदिश- 'ना जा पी परदेश' खूब सुनी जाती। रोज सुनी जाती,पर किसी का दिल न भरता।

मुन्नू गुरू तो इसे सुन कर रो पड़ते।कई दिनों बाद निर्मलाजी को कानपुर कानपुर से बिदा किया गया।संगी साथी उन्हें स्टेशन छोड़ने गये। विदा करते समय सबकी आंखें नम। ट्रेन चली गई। स्टेशन से बाहर आकर गुरू को याद आया कि निर्मलाजी का टिकट तो उनकी जेब में ही पड़ा रह गया। गुरू बोले-'यार, बहिनियाँ क्या सोचेगी! कनपुरिया कितने गैरजिम्मेदार हैं। परेशानी में पड़ जायेगी प्यारे ,बम्बई तक का सफर है।'

सोचा गया,अब क्या हो? गुरू ने तत्काल फैसला किया। बोले- 'तुरन्त टैक्सी बुलाओ,चलते हैं पुखरायाँ तक गाड़ी पकड़ लेंगे और टिकट निर्मला जी के हवाले कर देंगे।'

गाड़ी का पीछा करते-करते झाँसी पहुंच गये। प्लेटफार्म पर जा खड़े हुये। टिकट निर्मलाजी के हवाले करके भूल सुधारी गई और ठहाका लगा।

उसी दिन से मुन्नू गुरू और निर्मला जी एक दूसरे को भाई-बहन का दर्जा देने लगे। जिसका निर्वाह मुन्नू गुरू आजीवन करते रहे तथा मुन्नू गुरू के परिवार वाले आज भी करते हैं।

मुन्नू गुरु के बारे में अटल बिहारी बाजपेयी जी ने लिखा है:-

पंडित जितेन्द्र कुमार मिश्र उर्फ मुन्नू गुरू बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। साहित्य एवं काव्य में उनकी गहरी रुचि थी। व्यवसाय से जौहरी होते हुये भी संगीत एवं काव्य सम्मेलनों में हमेशा दिखाई देते थे। कानपुर नगर के बुद्धिजीवी वर्ग में पहचाने जाने वाले मुन्नू गुरू राजनीति में भी रुचि रखते थे। वे जीवन पर्यन्त कांग्रेस से जुड़े रहे। इंदिराजी के समर्थकों ने जब कानपुर में सत्याग्रह किया तब वे भी जेल गये।कानपुर वासियों को मुन्नू गुरू की कमी खलती रहेगी।
'मुन्नू गुरू' से जो नहीं मिला उसे यह न मिलने का अफसोस रहा तथा जो मिला उसे भी यह अफसोस रहा कि वह पहले क्यों नहीं मिला।


२८ फरवरी,१९२६ को हटिया ,कानपुर में जन्में 'मुन्नू गुरु' का देहावसान २७ अक्टूबर १९८० को हुआ।उनके निर्वाण पर उनके एक स्नेही ने कहा- "डा.साहब चला गया हरियाला बन्ना।"

मुन्नू गुरू के निर्वाण पर जब लोगों ने नरेशचन्द्र चतुर्वेदी से उनके बारे में आगे लिखने को कहा तो उनका कहना था- 'मुन्नू गुरू' पर जो कुछ लिखा जाना चाहिये उसे लिखना जितना कठिन है उतना ही कठिन है उसको सराहना। इस कठिन काम को मेरे उस स्वर्गवासी मित्र के अलावा और कौन कर सकेगा? उनकी जो स्मृतियां जो हमारे पास हैं उन्हें संजोये रखना ही उचित है।

'मुन्नू गुरू' से जो नहीं मिला उसे यह न मिलने का अफसोस रहा तथा जो मिला उसे भी यह अफसोस रहा कि वह पहले क्यों नहीं मिला।

कानपुर में स्मृति संस्था प्रतिवर्ष 'मुन्नू गुरू ' की याद में कवि सम्मेलन तथा संगीत सम्मेलन करती है। यह संस्मरण स्मृति के २००५ में हुये आयोजन के अवसर पर प्रकाशित स्मारिका के आधार पर लिखा गया।

मेरी पसंद

लहर ने समंदर से उसकी उम्र पूछी
समंदर मुस्करा दिया।

लेकिन,
जब बूंद ने
लहर से उसकी उम्र पूछी
तो लहर बिगड़ गई
कुढ़ गई
चिढ़ गई
बूंद के ऊपर ही चढ़ गई
और मर गई।

बूंद ,
समंदर में समा गई
और समंदर की उम्र बढ़ा गई।
-अशोक चक्रधर





6 comments:

चंद्रभूषण said...

वाकई, एक बड़े आदमी की याद दिला दी आपने।

चंद्रभूषण said...

पुनश्च: मेरे ख्याल से प्रोफाइल को खाली रखना ठीक नहीं है। जितने लोग इसमें योगदान करें, सभी का नाम-गिराम भी पता रहे तो इसमें हर्ज क्या है? हां, किसी का विशेष आग्रह नाम न देने का हो तो बात और है...

पारुल "पुखराज" said...

वाह! वाह ये ब्लाग आज पहली बार देखा, बड़े जाने पहचाने बोल पढ़ने मिले- कानपुर और उसके आस पास कितना कुछ है -लिखने व दिखाने को । 3 दिन बाद मै भी पहुँच रही हूँ - आपका ब्लाग देखकर नये नये विचार घेर रहे हैं -इस बार कुछ यादें कैमरे मे क़ैद कर लाऊगी--

Shiv said...

मुन्नू 'गुरु' सचमुच अद्वितीय थे. बहुत अच्छा लगा उनके बारे में पढ़ना..
शानदार पोस्ट.

Udan Tashtari said...

मुन्नू गुरु भी अपने आप में एक पर्सनाल्टी हैं-आनन्द देता है उनके विषय में पढ़ना. आभार.

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आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं, इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.
एक नया हिन्दी चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरु करवायें और हिन्दी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें.
यह एक अभियान है. इस संदेश को अधिकाधिक प्रसार देकर आप भी इस अभियान का हिस्सा बनें.
शुभकामनाऐं.
समीर लाल
(उड़न तश्तरी)

अभय तिवारी said...

पहले भी पढ़ा था.. आज फिर पढ़ा.. उतना ही आनन्द आया.. मुन्नु गुरु तो गुरु थे ही.. आप भी कम नहीं..